टाइगर स्वामी की कहानी | संकल्पशक्ति की तीव्रता

बाघ स्वामी की कहानी

परमहंस योगानन्द जी ने अपनी पुस्तक योगी कथामृत में इस कहानी का विस्तार से वर्णन किया, जो संक्षेप में आपके सामने प्रस्तुत है । यह बात परमहंसजी के बचपन की है, जब वह अपने हाई स्कूल के मित्र चण्डी के साथ अक्सर ऐसे विशिष्ट योगी और संतो से मिलने जाया करते थे ।

एक दिन उनके मित्र चण्डी ने बताया कि “मैंने बाघ स्वामी का पता खोज निकाला है , कल उनसे मिलने चलते है ।” यह सुनकर मुकुंद (परमहंसजी के बचपन का नाम) का बालसुलभ मन बाघ स्वामी ( सन्यास पूर्व उनका नाम बाघ स्वामी था, अब सन्यास के बाद उनका नाम सोहम् स्वामी है) के असाधारण साहसिक कार्यो के प्रति उत्सुकता से भर गया । उनके बारे में प्रसिद्ध है कि वह नंगे हाथों से बाघों के साथ लड़ते थे ।

दुसरे दिन प्रातःकाल कड़ी ठण्ड पड़ने के बावजूद भी मुकुंद अपने मित्र चण्डी के साथ कोलकाता से बाहर उस गाँव भवानीपुर की ओर चल दिए, जहाँ बाघ स्वामी का घर था । काफी समय तक इधर – उधर भटकने के बाद आखिर उन्हें सही ठिकाना मिल ही गया । द्वार पर जाकर उन्होंने दरवाजा खटखटाया तो अन्दर से मंद – मंद मुस्कुराता हुआ एक नोकर निकलकर आया और इन दोनों को एक बैठक कक्ष में ले जाकर बिठा दिया । काफी समय तक प्रतीक्षारत रहने के बाद दोनों को सोऽहं स्वामी ने अपने शयनकक्ष में आमंत्रित किया । जहाँ सोऽहं स्वामी एक पलंग पर अपने विशाल भीमकाय शरीर को लेकर बैठे हुए थे ।
बहुत देर तक अवाक् उन्हें घूरने के बाद बच्चो ने उनसे पूछा – “ क्या कृपा करके आप हमें यह बतायेंगे  कि भयंकर रॉयल बंगाल टाइगर को केवल अपने हाथों से परास्त करना कैसे संभव है ?”

तब खिलखिलाकर स्वामीजी बोले – “ मेरे बच्चों ! बाघ मेरे लिए कुछ भी नहीं, जरूरत पड़ने पर आज भी मैं वह सब कर सकता हूँ । तुम बाघ को बाघ समझते हो किन्तु मेरे लिए वह बिल्लियों से बढ़कर और कुछ नहीं ।”

तब मुकुंद बोला – “स्वामीजी ! मैं खुद को तो विश्वास दिला दूंगा कि बाघ मात्र बिल्लियाँ है, किन्तु क्या बाघ को भी वैसा ही विश्वास दिला सकूंगा ?”

तब स्वामीजी बोले – “ निश्चय ही शक्ति आवश्यक है ।” यह कहकर वह उठे और आँगन में सामने की दीवार पर एक प्रहार किया और दीवार की एक ईंट टूटकर नीचे गिर गई । तब मुकुंद को विश्वास हो गया कि यह निश्चय ही बाघ के दांत तोड़ सकते है ।

स्वामीजी उपदेश देने लगे – “ मन ही मांसपेशियों को नियंत्रित करता है । जैसे हथोड़े के आघात की शक्ति उसपर लगाये गये बल पर निर्भर करती है, वैसे ही मनुष्य की शारीरिक शक्ति भी उसकी इच्छाशक्ति की तीव्रता और साहस पर निर्भर करती है । मन ही मनुष्य का निर्माता है ”

इसके पश्चात् दोनों मित्र स्वामीजी से उनके अतीत के बारे में पूछने लगे तो वह बताने लगे ।

स्वामीजी बोले – “ बचपन से ही मेरी बाघों से लड़ने की प्रबल इच्छा थी, लेकिन शरीर दुर्बल था । स्वास्थ्य और शक्ति के अदम्य चिंतन में दृढ़ता द्वारा मैंने अपनी इस कमजोरी को दूर किया । मैं मानसिक शक्ति की प्रशंसा इसलिए करता हूँ क्योंकि वस्तुतः बंगाल रॉयल टाइगर को पराजित करने वाली शक्ति यही थी ।”

स्वामीजी की यह बात सुनकर पास ही बैठा मुकुंद बोलता है – “ स्वामीजी ! क्या आपको लगता है कि मैं भी कभी बाघों के साथ लड़ सकूंगा ?”

मुस्कुराते हुए स्वामीजी बोले – “ हाँ ! अवश्य ! किन्तु बाघ अनेक प्रकार के होते है । कुछ बाघ तो मनुष्य की इच्छा और वासनाओं के जंगल में घूमते है । जानवरों को अपने प्रहार से बेहोश करने में कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं । उससे तो अच्छा है कि अपने अंतर में घूमते उन बाघों को पराजित किया जाये जो रात – दिन हमें चैन नहीं लेने देते है ।”

मुकुंद बोला – “स्वामीजी ! क्या आप हमें बतायेंगे कि हिंसक बाघों को वश में करते – करते हिंसक वासनाओ को वश में कैसे करने लगे ?”

यह सुनकर कुछ समय के लिए बाघ स्वामी मौन हो गये । वह अतीत के दृश्यों को निहारने लगे । फिर अंततः मुस्कुराकर बोले – “ एक समय था जब मेरी कीर्ति चरमोत्कर्ष पर थी । मुझे घमण्ड का नशा चढ़ गया था । मैं हिंसक पशुओं को पालतू जानवरों की तरह व्यवहार करने को मजबूर करने लगा । ऐसा करके मिलने वाली सफलता से मुझे अपार ख़ुशी होने लगी ।”

एक दिन संध्या को मेरे पिताजी चिंतित होकर मेरे पास आये और बोले – “ बेटा ! तुम जो कर रहे हो, वह गलत है । पूरा जंगल समुदाय तुम्हारे विरुद्ध आक्रोश से व्याप्त है । कल जब बरामदे में बैठकर मैं नित्य की भांति ध्यान कर रहा था तब मेरे ध्यान में एक संत आये और बोले ।”

“मित्रवर ! आपके युद्ध प्रिय बेटे से कहिये कि अपनी बर्बर गतिविधियाँ बंद कर दे । अन्यथा बाघ के साथ अगली लड़ाई में उसे इतने दुसाध्य घाव होंगे कि वह छः महीने तक उठ नहीं पायेगा । तब वह ये सब छोड़कर सन्यासी हो जायेगा ।”

स्वामीजी आगे बोले – “ पिताजी की इस बात और संत की कहानी का मुझपर कोई असर नहीं हुआ । मैंने सोच लिया कि पिताजी किसी भ्रान्ति का शिकार हो गये है ।” यह कहते हुये बाघ स्वामी को खुद पर क्रोध आ रहा था । मानो उन्होंने कोई बहुत बड़ी मुर्खता की हो ।

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए स्वामीजी बोले – “ इस चेतावनी के कुछ ही दिनों बाद मेरा राजधानी कूचबिहार जाना हुआ । प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर यह प्रदेश मेरे लिए एकदम नया था । जब मैं सड़को पर चलता तो लोगों की भीड़ मेरे पीछे – पीछे चलती और लोग आपस में तरह – तरह की बातें कर रहे थे । जैसे यह वही आदमी है जो बाघों से लड़ता है । कुछ ही समय में मेरे आने की सुचना आग की तरह पुरे प्रदेश में फ़ैल गई ।”

“उसी दिन संध्या को मुझे युवराज की ओर से राजमहल में आने का निमंत्रण मिला । दुसरे ही दिन युवराज के भेजे सेवक शाही कोच लेकर मुझे लेने आ गये । तभी राजमहल पहुंचकर मुझे स्वर्ण के आसन पर बिठाया गया और स्वयं युवराज ने मेरा स्वागत किया । यह विनम्र सेवा देखकर मुझे लग रहा था कि जरुर मुझपर कोई मुसीबत आने वाली है । तभी युवराज ने पूछा कि “ मेरे नगर में अपवाहे फ़ैल रही है कि आप नंगे हाथों से जंगली बाघों के साथ लड़ सकते हो । क्या यह सच है ?” मैं बोला – “ जी हाँ ! यह सच है ।” तब युवराज बोला कि मुझे इसपर विश्वास नहीं होता । आप सच सच बताइए । मैं चुप रहा । मैंने उनके अपमानजनक प्रश्न का उत्तर देना उचित नहीं समझा ।”

तब युवराज बोला – “हम हाल ही में पकडे गये अपने बाघ राजबेगम के साथ लड़ने की आपको चुनौती देते है । यदि आप उसका सामना करके ज़न्गीरों में बांधकर पिंजरे से बाहर निकाल सके तो वह रॉयल बंगाल टाइगर आपका हो जायेगा । इसी के साथ आपको कई उपहार भी दिए जायेंगे । किन्तु यदि आप उससे लड़ने से मना करते है तो पुरे राज्य मैं हम आपको पाखंडी घोषित कर देंगे ।”

“ युवराज के शब्द गोलियों की बोछार से मुझे लग गये और मैंने शर्त स्वीकार कर ली । तब युवराज ने कहा कि वो लड़ाई एक सप्ताह बाद रखेंगे और उससे पहले मुझे बाघ से मिलने की अनुमति नहीं है । शायद उनको लगता था कि मैं बाघ पर सम्मोहन विद्या का प्रयोग करूंगा । इसके बाद मैं राजमहल से वापस लौट चला ।”

“अगले सप्ताह के युद्ध के लिए मैं अपने शरीर और मन को तैयार करने लगा । मेरे नोकर द्वारा मुझे लोगों में प्रचलित अजीबोगरीब कहानियाँ सुनने को मिल रही थी । कुछ लोगों का मानना था कि राजबेगम एक आसुरी बाघ है, जिसका जन्म मेरा घमण्ड तोड़ने के लिए हुआ है । एक किस्सा ये भी था कि बाघों के देवताओं ने उनकी प्रार्थना सुनकर राजबेगम के रूप में जन्म लिया है ।”

मेरे नोकर ने बताया कि मानव और पशु के बीच होने वाले इस द्वंद्व युद्ध का व्यवस्थापन स्वयं युवराज कर रहे थे ।उन्होंने हजारों लोगों के बैठने के लिए एक विशाल तम्बू बनवाया जिसके मध्य में राजबेगम का पिंजरा रखा गया । राजबेगम का भोजन भी कम कर दिया गया था । शायद युवराज को लगता था कि मैं उसका भोजन बनूंगा ।”

“आखिर वह दिन आ ही गया । डंका बजा और लोग जुटने लगे । चारों और भयभीत दर्शको की भीड़ जमा थी । राजबेगम की भयंकर गर्जनाओं के बीच मैंने शांति से तम्बू में प्रवेश किया । मेरे शरीर पर के लंगोट के सिवाय कोई कपड़ा नहीं था । मैंने सुरक्षात्मक घेरे का कुंडा खोला और धीरे से प्रवेश करके उसे भीतर से शांति से बंद कर दिया । बाघ को रक्त की गंध लग गई थी । वह उछलकर मेरी ओर झपटा और लोहे की छड़ो से टकराकर भीषण ध्वनी के साथ मेरा स्वागत किया ।”

“मैं झट से उसके पिंजरे में घुस गया लेकन जैसे ही मैंने दरवाजा बंद किया, राजबेगम सीधा मुझपर झपटा और मेरा दाहिना हाथ बुरी तरह से घायल हो गया । ऐसी गंभीर चोट मुझे पहली बार आई थी । इस बार मैं संभल गया । खून से सनी अँगुलियों को लंगोट में छुपाते हुए मैंने बाएं हाथ से एक कठोर प्रहार बाघ पर किया, जिससे वह लड़खड़ाकर पीछे हट गया और पिंजरे के पीछे तक गया । किन्तु फिर से पलटकर भीषण गुस्से के साथ मेरी ओर झपटा । तब मेरी मुष्ठिका के प्रहार उसपर बरसने लगे ।”

“उसे मेरे रक्त का स्वाद लग चूका था, अतः वह और भी अधिक उग्र होता जा रहा था । उसकी दहाड़े उसके आक्रमण की उग्रता की परिचायक थी । मेरे केवल एक हाथ से उसके दांत और नाखूनों के प्रहारों का जवाब दे पाना मुश्किल था । मैं आत्मरक्षा करने में असमर्थ सा प्रतीत हो रहा था । किन्तु मैं भी उसपर वज्र प्रहार करता गया । दोनों ही खून से लथपथ होकर जीवन – मरण का खेल खेल रहे थे । सभी ओर खून के छींटे बिखरे पड़े थे । बाहर लोग चिल्ला रहे थे – ‘ गोली चलाओ, बाघ को मारो’ ”

“हम दोनों की गति इतनी तेज थी कि एक सिपाही की गोली भी निशाना चुक गई । फिर मैंने अपनी सम्पूर्ण संकल्पशक्ति को एकत्र करके एक अंतिम खोपड़ी तोड़ प्रहार किया और बाघ गिर पड़ा ।”

राजबेगम आखिर पराजित हो ही गया था । अपने रक्त रंजित हाथों से मैंने उसका जबड़ा खोला और कुछ क्षण के लिए अपना सिर उस खुले मृत्युद्वार में रखा । एक जंजीर खींचकर उसकी गर्दन पिंजरे की छड़ से बांध दी और विजयोल्लास के साथ दरवाजे की ओर चल दिया । किन्तु वह आसुरी बाघ अब भी जीवित था । एक ही झटके में लोहे की जंजीर को तोड़ते हुए वह मेरी पीठ पर झपटा । मेरा कंधा उसके जबड़े में फंस चूका था अतः मैं जोर से नीचे गिर पड़ा । किन्तु पलक झपकते ही मैंने उसे तबोच लिया और निष्ठुर प्रहार करने लगा । वह मूर्छित सा हो गया । इस बार मैंने उसे सावधानी से बांध दिया और पिंजरे से बाहर निकला ।”

“चारों और लोग हर्षोल्लास से चीख रहे थे । मैं बुरी तरह से घायल तो हो गया था किन्तु मैंने तीनों ही शर्ते पूरी कर दी थी – बाघ को मूर्छित करना, जंजीर से बांधना और पिंजरे से बाहर आना । मेरा प्राथमिक उपचार करने के बाद मुझे पुरस्कृत किया गया । मुझपर पुष्पहार और स्वर्ण मुद्राओं की वर्षा की गई । लेकिन उस पिंजरे से निकलने के बाद मेरा ह्रदय परिवर्तन हो गया । मुझे प्रतीत हो रहा था कि मेरी महत्वाकांक्षाओं का द्वार बंद हो चूका है । उसके बाद शरीर में विष फैलने के कारण छः महीने तक मैं मरणासन्न पड़ा रहा और ठीक होने के बाद अपने गाँव चला आया ।”

“अब मुझे समझ में आया कि उन संत ने जो चेतावनी दी थी, वह सत्य थी । मैंने उन्हीं को अपना गुरु मान लिया और आखिर एक दिन वह हमारे घर पधारे और बोले – “बाघों से युद्ध तो बहुत कर लिया । अब मेरे साथ आओ ! मैं तुम्हें मानव मन के जंगलों में विचरण करने वाले अज्ञान के पशुओं से युद्ध करना सिखाऊंगा ।”

“उन्होंने मुझे आध्यात्मिक दीक्षा दी और मेरी आत्मा के कठिन द्वार खोल दिए । शीघ्र ही हम दोनों एक दुसरे का हाथ थामे मेरी साधना के लिए हिमायल की ओर चल दिए ।”

मुकुंद – “मैं और मेरे मित्र चण्डी ने कृतज्ञता से स्वामीजी को प्रणाम किया और चल दिए ।”

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