एकलव्य की गुरु भक्ति | महाभारत की कहानी

महाभारत में एक प्रसंग आता है कि एक बार गुरु द्रोणाचार्य अपने शिष्यों के साथ जंगल में भ्रमण कर रहे थे । भ्रमण करते – करते उनके साथ आया हुआ एक कुत्ता जंगल में रास्ता भटककर वहाँ पहुँच गया, जहाँ एक काला सा भील बालक एकलव्य धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था । कुत्ता एक अजनबी काले बालक को देख उस पर भौंकने लगा । अपने अभ्यास में कुत्ते के भौंकने के कारण बाधा उत्पन्न होने से एकलव्य ने कुत्ते का मुंह तीरों से भर दिया ।

कुत्ता तेजी से गुरु द्रोण और उनके शिष्यों के पास पहुँचा । कुत्ते की ऐसी हालत देख सभी हंसने लगे किन्तु अर्जुन यह देख रहा था कि किस तरह चतुरता से कुत्ते का केवल मुंह भरा गया हैं बिना उसे चोंट पहुचाएं । जब अर्जुन ने यह बात गुरु द्रोण को कही तो वे उस कुशल धनुर्धर से मिलने को उत्सुक हो उठे । जब एकलव्य को ढूंढते – ढूंढते यह मंडली उसकी कुटिया पर पहुंची तो गुरु द्रोण को अपनी प्रतिमा वहाँ देख आश्चर्य हुआ ।

एकलव्य अपने गुरु को आया देख दौड़कर उनके चरणों में गिर पड़ा । सभी को कुटिया में ले जाकर जलपान कराया । सभी यह जानने को उत्सुक थे की आखिर उसने कुत्ते का मुंह तीरों से कैसे भर दिया । तब उसने बताना शुरू किया ।

बहुत पहले मैं आपके पास अपनी धनुर्विद्या सिखने की तीव्र इच्छा लेकर पहुँचा था । किन्तु आपने मुझे यह कहकर टाल दिया कि तुम्हें इसकी आवश्यकता नहीं हैं । और राज परिवार के साथ तुम्हे धनुर्विद्या सिखने का अधिकार नहीं हैं ।

अतः में निराश होकर चला आया किन्तु मेरे मन में धनुर्विद्या सिखने की उत्कंठ इच्छा और लगन थी । अतः मैंने आपकी मिट्टी की प्रतिमा बनाकर सिखना आरम्भ कर दिया । मुझे ऐसा लगता था जैसे आप स्वयं आकर मेरी गलतियाँ बताते और मुझे सिखाते हो ।

एकलव्य की गुरु द्रोण के प्रति ऐसी निष्ठा और समर्पण को देख सभी शिष्य आश्चर्य से एकटक उसके चेहरे को ताक रहे थे । साथ ही एक ओर से सभी उसकी भूरि – भूरि प्रशंसा कर रहे थे । तो दूसरी ओर उसकी धनुर्विद्या के सामने अपनी धनुर्विद्या को छोटा देख अर्जुन का दिल जल रहा था । चुपके से अर्जुन अपने गुरु से कहने लगा – “गुरुदेव आपने मुझे वचन दिया हैं कि आपके शिष्यों में मेरे समान दूसरा कोई धनुर्धर नहीं होगा” गुरु द्रोण ने इशारे से उसे समझा दिया ।

अपनी कहानी सुनाने के पश्चात् एकलव्य गुरु द्रोण से कहने लगा कि “आपकी कृपा से मैं इतना श्रेष्ठ धनुर्धर बन सका हूँ । मुझे बताइए कि मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ” तो गुरु द्रोण ने मौका देख अपने वचन की खातिर गुरुदीक्षा का प्रश्न सामने रख दिया । और बोले – “इस ऋण से मुक्त होने के लिए अपने दाहिने हाथ का अंगूठा हमें दे दो” । एकलव्य ने बिना किसी हिचकिचाहट के अपने दाहिने हाथ का अंगूठा काटकर गुरु द्रोण के चरणों में अर्पित कर दिया । उसके इस अपूर्व त्याग और गुरु के प्रति निष्ठा के कारण आज वो इतिहास में अमर हो गया ।

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