संत तुकाराम के जीवन के प्रेरक प्रसंग

भगवान का दिया मिल बांटकर खाना चाहिए

एक दिन संत तुकाराम किसी काम से बाजार जा रहे थे तो धर्मपत्नी ने बाजार से गन्ने लाने के लिए कहा । अपना काम निपटाकर गन्ने ख़रीदे और घर की ओर चल दिए । तुकाराम ने गन्ने लेकर गाँव में प्रवेश किया और गाँव के बच्चे मिलने लगे । बच्चे संत तुकाराम की प्रकृति को अच्छे से जानते थे । अतः जो भी बच्चे गन्ने मांगते गये, तुकाराम  उनको गन्ने बांटते गये । जब तुकाराम घर पहुंचे तो केवल एक गन्ना शेष बचा, बाकि सब बंट गये ।

घर पहुंचकर जैसे ही उन्होंने दरवाजा खटखटाया, गन्ने आने की उम्मीद लगाये बैठी पत्नी ने दरवाजा खोला । तुकाराम के हाथ में एक ही गन्ना देख पत्नी का चेहरा उतर गया । जब उसने कारण पूछा तो तुकाराम ने सरलता से सारी बात बता दी । बच्चों को बाँटने वाली बात सुनकर उसकी भोहें तन गई । गुस्से में आकर पत्नी ने वह गन्ना भी तुकाराम की पीठ पर दे मारा ।  टूटकर गन्ना दो टुकड़ों में बंट गया ।

यह देखकर तुकाराम हँसे और बोले – “ वाह, भाग्यवान ! तुमने अच्छा बंटवारा किया । ये एक टुकड़ा तुम ले लो और एक मुझे दे दो । ईश्वर ने जो हमें दिया है, उसे मिल बांटकर खाना चाहिए ।” पत्नी मुस्कुरा दी ।

तुकाराम की सहनशीलता

एक व्यक्ति प्रतिदिन संत तुकाराम का कीर्तन सुनने आता था लेकिन साथ ही वह उनसे द्वेष भी रखता था । वह कहीं न कहीं तुकाराम को नीचा दिखाने का अवसर ढूंढता रहता था । जब किसी व्यक्ति का सम्मान बढ़ जाता है तो आस – पड़ोसियों का ईर्ष्या करना स्वाभाविक है ।

संयोग से एक दिन तुकाराम की भैंस उस व्यक्ति के बगीचे में चर आई । यह बात जब उस व्यक्ति को पता चली तो वह तुकाराम से लड़ने उनके घर पहुँच गया और उन्हें भद्दी गालियाँ देने लगा । इतने पर भी तुकाराम शांति से सुनते रहे कोई विरोध व्यक्त नहीं किया तो गुस्से में आकर उसने काँटों वाली छड़ी लेकर तुकाराम को अच्छे से पिट दिया । तुकाराम के कपड़े पुरे खून से सन गये फिर भी उन्होंने न तो क्रोध किया न ही कोई प्रतिरोध ।

हमेशा की तरह उस दिन जब संध्या के समय वह व्यक्ति भजन कीर्तन में नहीं आया तो तुकाराम स्वयं उसके घर गये और भैंस की गलती के लिए क्षमा मांगते हुए कीर्तन में चलने का आग्रह करने लगे ।

संत तुकाराम की ऐसी सरलता और महानता को देखकर वह व्यक्ति भावाभिभूत होकर उनके चरणों में गिर पड़ा और अपने किये के लिए क्षमा याचना करने लगा । संत तुकाराम ने उसे उठाकर गले लगा किया ।

अब उसे भी समझ आ गया कि संत तुकाराम ऐसे ही महान नहीं, बल्कि उनकी अपनी महानता के कारण महान है ।

ईश्वर की दया

संत तुकाराम जाति से शुद्र थे । इसलिए उनका ईश्वर की भक्ति करना, भजन – कीर्तन और अभंगो की रचना करना, उस समय के तथाकथित पंडितों की दृष्टि में एक जघन्य अपराध था ।

एक दिन रामेश्वर भट्ट नाम के एक पंडित ने उन्हें बुलाया और कहा – “ देख तुकाराम ! तू जाति का शुद्र होकर ईश्वर के भजन लिखता है, ये ठीक नहीं है । तुझे ये सब नहीं करना चाहिए ।”

तुकाराम बड़े ही सीधे –साधे और भोले इंसान थे । उन्होंने रामेश्वर भट्ट की बात मान ली और पूछा – “ जो अभंग मैंने रचे है, उनका क्या करूं ?” तब उस मुर्ख पंडित ने कहा कि इन्हें नदी में बहा दो ।

स्वभाव से सरल तुकाराम ने अपने सारे अभंग इंद्रायणी नदी में बहा दिए । उस पंडित के दबाव में आकर संत तुकाराम ने अपने अभंग बहा तो दिए लेकिन इस घटना का उनपर बड़ा गहरा असर हुआ । वे तेरह दिन तक बिना अन्न जल ग्रहण किये भगवान विट्ठल के मंदिर के सामने पड़े रहे और ईश्वर से प्रार्थना करते रहे कि “ हे प्रभु ! मुझसे क्या गलती हुई थी जो आप मुझसे नाराज है ?”

अत्यंत विषाद की अवस्था में भी व्यक्ति लगभग समाधि में चला जाता है । तेरहवे दिन तुकाराम को सपना आया कि “ पोथियाँ नदी के किनारे पड़ी है, जाकर उठा लाओ ।” तब उनके शिष्यगण गये और पोथियाँ उठा लायें ।

ईश्वर सच्चे भक्त के ह्रदय की पुकार अवश्य सुनता है ।

संत तुकाराम की परीक्षा

एक समय की बात है, जब संत तुकाराम भंडारा पर्वत पर गहन साधना पर संलग्न थे । तभी कहीं से एक रूपवती स्त्री वहाँ उपस्थित हुई और तपस्वी को रिझाने की कोशिश करने लगी । तब तुकाराम ने एक अभंग के रूप में उस स्त्री को जो शब्द कहे, उन्हें सुनकर वह स्त्री उसी क्षण वहाँ से विदा हो गई ।

संत तुकाराम बोले – “ हे माते ! मैं पराई स्त्री को माँ रुक्मणि के समान माँ ही समझता हूँ । इसलिए मुझे रिझाने का व्यर्थ प्रयास न करो । मैं तो भागवान विष्णु का दास हूँ । मुझे भ्रष्ट करने का विचार करके क्यों अपना पतन करने पर तुली हुई हो । जाओ और प्रभु की भक्ति करो और आगे से कभी ऐसी अपवित्र बातें मत करना ।”

संत के ऐसे वचन सुनकर वह स्त्री उसी क्षण वहाँ से विदा हो गई ।

जिस तपस्वी साधक का मन हर समय प्रभु चरणों में लगा रहता है, उसे सांसारिक विषयों में लगाना असंभव है । जिसका हर भोग पहले ईश्वर को अर्पण होता है, उसके लिए वह भोग नहीं, बल्कि ईश्वर का प्रसाद होता है । ऐसे भक्त विरले ही होते है ।

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