पर – दोष दर्शन का परिणाम | शिक्षाप्रद कहानिया

दूसरों के दोष देखने का परिणाम

लोगों की स्वाभाविक मनोवृति होती है – दूसरों के दोष देखना ! यह बहुत ही बुरी आदत है । यदि कोई अपना है और उसके दोष देखकर उसमें सुधार का प्रयास किया जाये तो उत्तम है । किन्तु किसी दुसरे के व्यक्तिगत दोषों को देखना और उसने घृणा करना आपके पतन का कारण हो सकता है । सामने वाले का भविष्य आपने देखा नहीं, उसके अतीत से आप अपरिचित है और वर्तमान के अनुसार यदि आप उसे दोषी ठहराते है तो यह आपके लिए अनुचित ही नहीं आपके अहंकार को बढ़ाने वाला होगा । जब आपमें अहंकार आ गया, आप उससे भी निम्न अवस्था में चले जायेंगे । आपके दिमाग में केवल उसके दोष घूमेंगे और जैसे विचार वैसा मनुष्य के सिद्धांत के अनुसार एक दिन आप भी सूक्ष्म स्तर पर उसी के समान हो जायेंगे । हो सकता है उससे भी गई गुजरी अवस्था में चले जाये ।

जब आप दूसरों की बुराइयाँ देखना शुरू करेंगे तो आपको अपनी बुराइयाँ बिलकुल नहीं दिखेगी । उल्टा आपको स्वयं के महान होने का अभिमान हो जायेगा । यह अभिमान ही आपके पतन का कारण बनता है ।
दुनिया में मुश्किल से कोई ऐसा होगा जो दूसरों के व्यक्तिगत पापों पर नजर नहीं रखता हो । प्रत्येक मनुष्य को उसके  व्यक्तिगत पापों की सजा ईश्वरीय विधान से उसके कर्म फल के रूप में मिल जाएगी । तो फिर क्यों किसी के व्यक्तिगत दोषों पर हम टिका – टिप्पणी करें ।हमें केवल अपने सुधार के लिए प्रयासरत चाहिए । आत्मा सुधार ही आत्मोन्नति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है ।

किसी महात्मा ने बहुत ही उत्तम कहा है – दूसरों के दोष मत देखो ताकि तुम्हारे भी दोष ना देखे जाये अर्थात परमपिता परमात्मा हमारे दोषों को नजरअंदाज कर दे ।

दूसरों के दोष देखने का क्या परिणाम हो सकता है । इसके लिए यह कहानी आपके लिए प्रस्तुत है ।
एक बार की बात है एक गाँव में अदर्श नाम का एक बालक रहता था । अदर्श जन्म से ही सुन्दर, सुशील, बुद्धिमान और गुरुभक्त था । किन्तु उसमें एक ही कमी थी कि वह थी – दूसरों के दोष देखकर उन्हें नीचा दिखाना । उसके आचार्य ने उसे इसके लिए कई बार टोका किन्तु वह इसका आदी हो चूका था ।
अदर्श ने अपनी शिक्षा दीक्षा समाप्त कर लेने के बाद ज्ञान साधना करने के लिए योगी का जीवन जीने का निश्चय किया । इसके निमित्त वह एक दिन अपने गुरु आचार्य सदानंद के पास गया । उसने आचार्य सदानंद से प्रार्थना की कि उसे ज्ञान साधना की विधि बताये । आचार्य ने उसे किसी गाँव में रहकर ज्ञान साधना करने का आदेश दिया ।

अदर्श घूमते – घूमते एक गाँव पहुँचा । बहुत तलाश करने के बाद उसे गाँव से बाहर एक छोटी सी कुटिया बनाने की जगह मिल गई । कुटिया बनाने के बाद अदर्श ने आस पास के पड़ोसियों को ज्ञान चर्चा के लिए बुलाया । चर्चा के दौरान एक व्यक्ति ने बताया कि अदर्श ने जो कुटिया बनाई है उसके सामने की ओर गाँव से दूर एक वैश्या वरा का घर भी है । वैश्या के बारे में जानकर अदर्श की उत्सुकता और अधिक बढ़ गई । किन्तु उन्होंने ब्रह्मचारी की मर्यादा का ध्यान रखते हुए उस बात को नजरअंदाज कर दिया ।

दुसरे दिन प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में उठकर वह संध्यावंदन करके अपनी ज्ञान साधना में लग गया । साधना समाप्त करने के बाद वह आस – पास के गाँव में भिक्षा के लिए जाता और वहाँ से आने के बाद अपनी ज्ञान साधना में लग जाता तथा शाम को कुछ विद्वानों को इकट्ठा करके ज्ञान चर्चा करते था ।

एक दिन वह वैश्या भी उनके बीच ज्ञान चर्चा में शामिल होने आ गई तो अदर्श ने भी उसे वहाँ से चले जाने के लिए कहा । वह बहुत दुखी हुई और अपने घर को लौट गई । उस दिन से वहाँ ज्ञान चर्चा के बजाय वैश्या के किस्से चलने लगे । अपनी निंदक वृति के कारण अदर्श भी वरा को भला बुरा कहने लगा ।
किन्तु वरा अदर्श से बहुत प्रभावित थी । उसने उसी दिन से अपने कुकर्मों को छोड़कर अदर्श की तरह ज्ञान साधना का मार्ग अपना लिया । वह भी प्रतिदिन अदर्श को देखती और उसके अनुसार साधना करती थी । वरा को अब जब भी समय मिलता वह ईश्वर को याद करती थी ।

किन्तु अब अदर्श जब भी समय मिलता वरा के बारे में नाना प्रकार की कुकल्पनाएं करता रहता था । धीरे – धीरे अदर्श का सारा तेज जाता रहा । एक दिन वह बुरी तरह से बीमार पड़ गया । कोई उसकी सेवा के लिए नहीं आया । जब वरा ने देखा कि आज अदर्श कुटिया से बाहर ही नहीं आया तो वह अँधेरे में ही कुटिया की ओर चल दी । जब वह कुटिया में पहुंची तो उसने देखा कि अदर्श एक कौने में पड़ा कराह रहा था । उसके मुंह से केवल दो ही शब्द निकल रहे थे “पानी – पानी” । वरा ने उसे पानी पिलाया किन्तु पानी पीते ही वह दुनिया छोड़कर चल दिया ।

सुबह हो चुकी थी । लोग अदर्श से मिलने आ रहे थे । लोगों ने देखा वरा यहाँ ! वह कुछ कहती उससे पहले ही लोगों ने उसे भला – बुरा कहना शुरू कर दिया और जब पता चला कि अदर्श नहीं रहा तो लोग और भी अधिक क्रोधित  हो गये और उन्होंने वरा को जिंदा जला दिया ।

थोड़े दिन बाद यह बात अदर्श के आचार्य को पता चली । लोगों ने जो उन्हें बताया उससे वह संतुष्ट नहीं थे । अतः वह स्वयं अपने शरीर से आत्मा को अलग करके सूक्ष्म लोक में गये । वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि अदर्श उस वैश्या से भी निचले लोक में वास कर रहा था । उन्होंने अदर्श से इसका कारण पूछा तो अदर्श ने बताया कि – दोष दृष्टि का परिणाम है गुरुदेव ! मैं पवित्र होते हुए भी उसकी बुराइयों का चिंतन करने से अपवित्र हो गया और वह अपवित्र होते हुए भी मेरे गुणों का चिंतन करके पवित्र हो गई ।

यही बात जब आचार्य सदानंद ने गाँव के सभी लोगों को समझाई तो उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ और उन्होंने निश्चय किया कि अब कभी किसी दुसरे का छिद्रान्वेषण नहीं करेंगे । अपनी दृष्टि को हमेशा पवित्र रखेंगे और वरा को जलाने का जो पाप हमने किया उसके लिए जीवन भर पश्चाताप करेंगे ।

इस दुनियां में सभी प्रकार के लोग है । कुछ स्वभाव से बरे है तो कुछ मज़बूरी में बुरे बन जाते है । लेकिन फिर भी आत्मिक दृष्टि से सभी निर्दोष है । इसलिए हमें दूसरों की व्यक्तिगत बुराइयों को देखकर किसी को बुरा घोषित करने का कोई अधिकार नहीं । किन्तु सामाजिक बुराइयों को देखना और उनके खिलाफ कदम उठाना भी एक जागरुक इन्सान का कर्तव्य है । यदि आपका पड़ोसी झूठ बोलता है तो उसे एक बार समझाकर दर किनार किया जा सकता है । किन्तु यदि कोई नेता झूठ बोल दे तो उसकी निंदा होनी चाहिए ।

यदि अपनी बुराइयाँ दूर कर चुके है और समाज की बुराइयाँ दूर करने का जज्बा रखते है तो आपकी सोच समाज को सुन्दर बना सकती है ।

अपने प्रति ईमानदार व्यक्ति कभी किसी के प्रति बेईमान नहीं हो सकता

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