धैर्य की परीक्षा हिंदी शिक्षाप्रद कहानी

सच्चा शिष्य कौन

एक बार आमोद, अधीर और अभय नामक तीन मित्र गुरु की तलाश में निकले । बहुत खोजने के बाद तीनों एक गुरु के पास पहुंचे । तीनों ने गुरु से निवेदन किया किया कि उन्हें शिष्य रूप में स्वीकार किया जाये, किन्तु गुरु का नियम था कि वह केवल योग्य शिष्य को ही दीक्षा देते थे । इसलिए उन्हें पहले सिद्ध करना होगा कि वह उनके शिष्य बनने लायक है तभी शिक्षा – दीक्षा संभव है ।

गुरु की बात सुनकर तीनों अपनी योग्यता का प्रमाण देने को तैयार हो गये । गुरु ने कहा – “ जाओ जंगल से लकड़ियाँ ले आओ किन्तु ध्यान रहे लकड़ियाँ सूखी ही होना चाहिए ।”

गुरु की बात सुनकर तीनों मित्र जंगल की ओर निकल पड़े । चलते – चलते उन्होंने आधा जंगल पार कर लिया था । मध्याह्न काल का समय होने को आया था, लेकिन कहीं से कहीं तक सूखा तिनका भी नजर नहीं आया । हताश और निराश होकर वह एक पेड़ की छाँव में सुस्ताने लगे । तभी सामने से एक व्यक्ति लकड़ियों का गट्ठर लेकर आता हुआ दिखाई दिया । अभय ने जैसे ही उस लकड़हारे को देखा, आमोद और अधीर को बताया । तीनों मित्र उसके निकट गये और पूछा – “ भाई ! हमें भी बताओगे, ऐसी सूखी लकड़ियाँ कहाँ मिलेगी ?, सूखी लकड़ियों को ढूंढ – ढूंढकर हम दुखी हो गये है ।”

वह अनजान व्यक्ति बोला – “ देखो भाई ! इस जंगल में सूखी लकड़ियाँ खोजना, आटे में नमक खोजने जैसा है । अगर आप लोगों को सूखी लकड़ियाँ ही चाहिए तो यहाँ से चार योजन की दुरी पर कंटक नाम की एक पहाड़ी है । उस पर आपको ढेर सारी लकड़ियाँ मिल जाएगी ।” इतना कहकर वह व्यक्ति चल दिया ।

अब तीनों मित्र आपस में सलाह कर रहे थे । उनमें से आमोद बोला – “ इतनी दूर उस पहाड़ी पर जाकर लकड़ियाँ लाने से तो बेहतर है कि इसी जंगल की लकड़ियाँ सूखा ली जाये ।” इतने में अभय बोला – “ यहाँ के राजा ने इस जंगल से लकड़ियाँ काटने पर पाबन्दी लगा रखी है । यदि हमने ऐसा किया तो यह राज द्रोह होगा । राजा की आज्ञा का उलंघन होगा ” यह सुनकर आमोद बोला – “ अभय ! इस बात की किसी को कानों कान खबर तक नहीं होगी कि किसी ने जंगल से लकड़ियाँ भी काटी है ।” किन्तु आमोद की बात से अन्य दोनों मित्र असंतुष्ट थे । अतः वह आमोद को वही छोड़कर आगे चल दिए ।

चलते – चलते वह दोनों २ योजन पार कर गये । फिर से थककर एक पेड़ के नीचे विश्राम करने लगे कि उन्हें एक और लकड़हारा लकड़ियों का गट्ठर लेकर आता हुआ दिखाई दिया । अधीर ने सोचा – “ क्यों ना इस लकड़हारे से लकड़ियाँ मांग लो जाये !” यही सोच वह लकड़हारे के पास गया और बोला – “ श्रीमान ! क्या आप हमें थोड़ी लकड़ियाँ दे सकते है ?” लकड़हारा बोला – “ क्यों नहीं ! बाजार ले जाकर बेचने से अच्छा है, मैं यही बेच दूँ । आपको मैं सस्ते में दे दूंगा । बोलिए कितनी लकड़ियाँ चाहिए ।”

लेकिन उन दोनों मित्रों के पास लकड़हारे को देने के लिए कुछ नहीं था । अधीर ने विनम्रता से कहा – “ श्रीमान ! हमारे पास देने के लिए कुछ नहीं है !” तो लकड़हारा बोला – “ माफ़ कीजियेगा जनाब ! मुक्त का सौदा हम नहीं करते ।”

दोनों मित्र निराश होकर फिर से उस पेड़ की ओर चल दिए । जब अधीर पीछे मुड़कर देखा तो लकड़हारा लकड़ियों का गट्ठर रास्ते में रखकर पानी पीने के लिए एक सरोवर की ओर जा रहा था ।

अधीर के मन में लालच गया । उसने अभय  से कहा – “ सखा ! यदि हम लकड़हारे की लकड़ियाँ लेकर गायब कर दे तो हमारा काम भी हो जायेगा और उसे पता भी नहीं चलेगा । लेकिन अभय बोला – “ भाई चोरी करना पाप है । मैं यह नहीं करूंगा, ना ही इसमें तुम्हारा साथ दूंगा ।” तो अधीर बोला – “ ठीक है तो भटको कंटक पहाड़ी के कंटीले रास्तों में, मैं तो चला ।” और वह लकड़हारे की लकड़ियाँ लेकर जंगल में भाग गया ।

अधीर की इस कुकृत्य पर अभय को बहुत गुस्सा आया । किन्तु वह शेष दो योजन पार करने के लिए उत्साह से आगे बढ़ने लगा । अभय ने रास्ते में कुछ जंगली फल खाकर अपनी क्षुधा को शांत किया और बिना विश्राम के आगे बढ़ता रहा ।

सूर्य अस्ताचल को चला था, आसमान पूरी तरह से सूर्य की आभा से शोभायमान हो रहा था । हवाएं शांत होकर धीमे से बह रही थी । पक्षी और जानवर अपने – अपने घरों को चल दिए थे । जंगली तितलियों की लयबद्ध आवाजे संध्या के सन्नाटे को भंग कर रही थी और अभय कंटक पहाड़ी पर आ चूका था ।
पहाड़ी पर चड़कर जब उसने पीछे देखा तो दूर – दूर तक केवल घना जंगल दिखाई दे रहा था । लेकिन पहाड़ी से सूर्य अब भी आग के गोले की तरह चमकता हुआ दिखाई दे रहा था । अभय ने झट से सूखी लकड़ियाँ इकट्ठी की और एक गट्ठर बनाया ।

उसे अँधेरा होने से पहले – पहले जंगल से निकलना था क्योंकि रात्रि में जंगल में जंगली जानवरों का भय रहता है । अभय तेजी से चलने लगा । उसकी गति पहले से तीन गुना अधिक थी । नाम के साथ – साथ अभय एक साहसी और योगाभ्यासी ब्रह्मचारी था । उसके थकने का तो सवाल ही नहीं उठता किन्तु अचानक एक जंगली शेर उसके सामने आ धमका । एक क्षण के लिए अभय ने भागने का मन बनाया किन्तु वह जानता था । यदि वह भागा भी तो शेर उसे कुछ ही क्षण में पकड़ लेगा । वह लकड़ियों का गट्ठर हाथों में लेकर निडरता से शेर की तरफ बढ़ा । दोनों की नजरे एक दुसरे पर एक टक बंधी हुई थी । शेर उसकी आँखों में देखा रहा था और वह शेर की आँखों में । अभय के मन में शेर के प्रति बिलकुल हिंसा नहीं थी । वह जानता था कि शेर से लड़कर वह उसे नहीं जीत सकता । इसलिए वह मन ही मन प्रेम से शेर को मना रहा था । उसके होठो से धीरे – धीरे आवाज निकल रही थी, “ शांति ! जंगल के राजा मैं तो बस इस रास्ते से गुजर रहा था । मेरी आपसे कोई दुश्मनी नहीं, मैं आपको कोई नुकसान नहीं पंहुचाना चाहता ।”

उसके दृढ़ता भरे शब्दों और निडरता से बढ़ते क़दमों को देख शेर पीछे हटने लगा । और फिर अचानक से जंगल की ओर भाग गया । शेर को भागता देख अभय का चेहरा खिल उठा । अब वह दुगुने उत्साह से आगे बढ़ने लगा । थोड़ी ही देर में वह आश्रम पहुंच गया । वहाँ आमोद, अधीर दोनों उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे ।

अभय को आता देख दोनों बोले – “ तेरी प्रतीक्षा में आचार्य ने हमें अब तक अन्दर नहीं आने दिया । कहा कि तीनों एक साथ आना ।”

अभय बोला, “ क्षमा मित्रों ! मेरी वजह से आपको प्रतीक्षा करनी पड़ी । चलो अब भीतर चले ।”
रात्रि काफी हो चुकी थी अतः आचार्य ने तीनों को लकड़ियाँ रखकर सो जाने को कहा । तीनों मित्र अपनी – अपनी लकड़ियाँ अपने – अपने सिरहाने रखकर सो गये ।

जब सुबह उठे तो देखा कि उनके सिरहाने की लकड़ियाँ गायब थी । तीनों ने आपस में एक दुसरे से पूछा किन्तु किसी को कुछ नहीं पता था । तीनों आचार्य के पास गये । लकड़ियों का एक बड़ा ढेर आचार्य के सामने पड़ा था । आचार्य ने कहा – “ एक – एक करके इसमें से अपनी – अपनी सूखी लकड़ियाँ निकाल लो ।”

सबसे पहले आमोद की बारी आई । उसकी लकड़ियाँ हल्की गीली थी क्योंकि वह जंगल से काटकर लाया था अतः उसने अपनी लकड़ियाँ न लेकर उतनी ही सूखी लकड़ियाँ निकाल ली ।

उसके बाद अधीर की बारी आई । वह तो लकड़ियाँ चुराकर लाया था इसलिए उसे अपनी लकड़ियों की कोई पहचान नहीं थी । इसलिए उसने कहा, “ अभय पहले तू निकाल ले !”

अभय ने आगे बढ़कर अपनी लकड़ियाँ चुनना शुरू किया किन्तु उसकी दो लकड़ियाँ कम पड़ी । उसने आचार्य से कहा – “ आचार्य मेरे गट्ठर से दो लकड़ियाँ कम है ?”

आचार्य ने कहा – “ आमोद का गट्ठर देखो ! हो सकता है उसमे हो !” अभय ने आमोद का गट्ठर देखा और उसे उसकी दो लकड़ियाँ मिल गई ।

अब फिर से बारी थी अधीर की । अधीर असमंजस में था कि कौनसी लकड़ियाँ चुने और कौनसी नहीं । उसने जैसे – तैसे कुछ लकड़ियाँ चुन ली ।

अब आचार्य बोले – “ आमोद सच बताना ! तुमने अभय के गट्ठर की दो लकड़ियाँ अतिरिक्त क्यों ली ?”
ना चाहते हुए भी आमोद को बोलना पड़ा – “ गुरुदेव ! मैं लकड़ियाँ पास के जंगल से काटकर लाया था जो पूरी तरह से सुखी हुई नहीं थी । इसलिए मैंने सूखी लकड़ियाँ निकाल ली । किन्तु मुझे नहीं पता था कि वह अभय की निकलेगी ।”

आचार्य बोले – “ किन्तु क्या तुम्हे नहीं पता था कि जंगल से लकड़ियाँ काटना राजद्रोह है ?”
आमोद सिर झुकाते हुए – “ पता था गुरुदेव ! मुझे क्षमा कर दीजिये !”

आचार्य – “ वत्स ! तुमने राजा के नियम का उलंघन किया है अतः तुम्हे राजा से क्षमा मांगनी चाहिए ।”
आमोद अपनी गीली लकड़ियों का गट्ठर लेकर राजदरबार कि और चल दिया ।

अब आचार्य अधीर से बोले – “ सच बताना अधीर ! जो लकड़ियाँ तुमने चुनी है ! क्या वह तुम्हारी ही है ?”

अधीर – “ नहीं बता सकता गुरुदेव !”

आचार्य – “ क्यों नहीं बता सकते ? क्या लकड़ियाँ तुम नहीं लाये ?”

अधीर – “ आचार्य ! लकड़ियाँ तो मैं ही लाया हूँ किन्तु मुझे अपनी लकड़ियों की कोई पहचान नहीं । क्योंकि मैं एक लकड़हारे की लकड़ियाँ चोरी करके लाया हूँ ।”

आचार्य – “ तो अब तुम चाहते हो कि मैं एक चोर को अपना शिष्य स्वीकार करूं ?”

जो अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को दुखी कर सकता है, वह कभी किसी का भला क्या खाक करेगा !

अधीर – “ क्षमा करे आचार्य ! मैं आपका शिष्य बनने के लायक नहीं हूँ ।”

आचार्य – “ यह लकड़ियाँ जिसकी है उसे पहुंचाओं और आत्मसुधार करों ।” अधीर अपनी लकड़ियों का गट्ठर उठाकर चल देता है ।

आचार्य – “ अभय ! तुम्हे कहने की आवश्यकता नहीं । जो अपनी दो लकड़ियाँ पहचान सकता है, वह निश्चय ही बड़ी मेहनत से लाया होगा । लाओ अपनी समिधाएँ यज्ञ के पास रख दो । आज से तुम मेरे शिष्य !”

दोस्तों ! जो लाइफ में शॉर्टकट अपनाते है उनकी लाइफ अक्सर शोर्ट सर्किट हो जाती है । इसलिए शॉर्टकट से सावधान रहे और ईमानदारी पूर्वक जिए और जीने दे । जीवन में धैर्य रखे और ईश्वर में विश्वास रखे । किया गया कर्म कभी व्यर्थ नहीं होता ।

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