पक्का साधक कैसे बने | एक हलवाई की कहानी

एक बार एक गुरूजी अपने शिष्यों को साधना का उपदेश दे रहे थे और कह रहे थे कि पक्के साधक बनो, कच्चे साधक नहीं । कच्चे – पक्के साधक की बात सुनकर एक नये शिष्य को असमंजस हुआ । जिज्ञासावश आखिर उसने पूछ ही लिया – “ गुरूजी ये पक्का साधक कैसे बनते है ?”
 
गुरूजी मुस्कुराये और बोले – “ चल तुझे मैं एक कहानी सुनाता हूँ । एक गाँव में एक हलवाई रहता था । हलवाई प्रतिदिन दसियों व्यंजन बनाता था, जो एक से बढ़कर एक स्वादिष्ट थे । आस – पास के गाँवो में भी हलवाई की बड़ी ख्याति थी । अक्सर लोग हलवाई के सुस्वादिष्ट पकवानों का आनंद लेने आते थे ।
एक दिन हलवाई की दुकान पर एक दम्पति का आगमन हुआ । उनके साथ उनका छोटा सा बच्चा भी था, जो बहुत ही चंचल था । उसके पिता ने हलवाई को विशेष प्रकार का हलवा बनाने का आदेश दिया । वह दोनों दम्पति तो प्रतीक्षा करने लगे, लेकिन वह बच्चा बार – बार आकर हलवाई से पूछने लगा – “ हलवा बन गया क्या ?” हलवाई कहता – “ अभी कच्चा है, थोड़ी देर और लगेगी ।” वह थोड़ी देर प्रतीक्षा करता और फिर आकर हलवाई को आकर पूछता – “खुशबू तो अच्छी आ रही है, हलवा बन गया क्या ?” हलवाई कहता – “ अभी कच्चा है, थोड़ी देर और लगेगी ।”
 
एक बार, दो बार, तीन बार, बार – बार उसके ऐसा पूछने से हलवाई बुरी तरह से चिढ़ गया । उसने प्लेट उठाई और कच्चा हलवा ही रखा और बोला – “ ले खा ले ।” बच्चे ने खाया तो बोला – “ ये तो अच्छा नहीं है ।” तो हलवाई बोला – “ अगर अच्छा खाना है तो चुपचाप जाकर वहाँ बैठ जाओ और प्रतीक्षा करो ।” इस बार बच्चा चुपचाप जाकर बैठ गया ।
 
जब हलवा पककर तैयार हो गया तो हलवाई ने थाली में सजा दिया और उन दंपत्ति की टेबल पर परोस दिया । इस बार जब उस बच्चे ने हलवा खाया तो उसे बड़ा अच्छा लगा । उसने हलवाई से पूछा – “ हलवाई काका ! अभी थोड़ी देर पहले जब मैंने इसे खाया था, तब तो यह अच्छा नहीं लगा था । अब इतना स्वादिष्ट कैसे हो गया ?”
 
तब हलवाई ने उसे प्रेम से समझाते हुए कहा – “ जब तू ज़िद कर रहा था, तब यह कच्चा था और अब यह पक गया है । कच्चा हलवा अच्छा नहीं लगता । यदि फिर भी उसे खाया जाये तो पेट ख़राब हो सकता है । लेकिन पकने के बाद वह स्वादिष्ट और पोष्टिक हो जाता है ।”
 
अब गुरूजी अपने शिष्य से बोले – “ कच्चे और पक्के का फर्क समझ में आया की नहीं ?” शिष्य बोला – “ हलवे के कच्चे और पक्के होने की बात तो समझ आ गई, लेकिन एक साधक के साथ यह कैसे घटित होता है ?”
 
गुरूजी बोले – “ साधक भी हलवाई की तरह ही है । जिस तरह हलवाई हलवे को आग के तप से पकाता है उसी तरह साधक को भी स्वयं को साधना के तप से पकाना पड़ता है । जिस तरह हलवे में सभी आवश्यक चीज़े डालने के बाद भी जब तक कच्चा है, अच्छा नहीं लगता । उसी तरह साधक भी चाहे कितना ही ज्ञान जुटा ले, विभिन्न कर्मकाण्ड कर ले । जब तक तप की अग्नि में नहीं तपता, तब तक वह कच्चा ही रहता है । जिस तरह हलवे को अच्छे से पकाने के लिए उसे लगातार उलट – पलट करना पड़ता है, उसी तरह साधक को भी अपने मन को उलट – पलट करके दुर्गुणों को निकालते और सद्गुणों को धारण करते रहना चाहिए । जब पकते – पकते हलवा आग की तरह पीलापन ले ले, उसमें से खुशबु आने लगे और उसे खाने में आनंद और पोष्टिकता का अनुभव हो, तब उसे पका हुआ कहते है । उसी तरह जब साधना, साधक और साध्य तीनों एक हो जाये, साधक के शरीर से दिव्य सुगंधी आने लगे और जब इष्ट में ही आनंद अनुभूति होने लगे, तब समझना चाहिए कि साधक पक्का हो चूका है ।”
 
शिक्षा – इस छोटी सी कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि जब तक साधक पक्का न हो जाये, उसे सावधान और सतर्क रहना चाहिए । क्योंकि माया बड़ी ही ठगनी है । कभी भी साधक को अपनी स्थिति से गिरा सकती है । अतः साधक को निरंतर साधना और स्वाध्याय से स्वयं को मजबूत बनाना चाहिए ।

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