परिष्कृत व्यक्तित्व – अध्यात्म साधना का दूसरा सिद्धांत

अध्यात्म साधना का दूसरा सिद्धांत है – परिष्कृत व्यक्तिव । आपने देखा होगा हम जब भी किसी नौकरी के लिए आवेदन करते हैं तो लिखित परीक्षा के पश्चात् हमें साक्षात्कार के लिए बुलाया जाता हैं । क्यों ? क्योंकि हमें काम पर रखने वाला यह देखना चाहता हैं कि जिस काम के लिए हम इस आदमी को चुन रहे हैं । आखिर यह आदमी उस काम के लायक हैं भी या नहीं ।

देश दुनिया की सारी संस्थाएं चाहे वो सरकारी हो या निजी, किसी भी शक्स को अपने यहाँ काम पर रखने से पहले उस व्यक्ति का व्यक्तिगत रूप से साक्षात्कार जरुर लेती हैं । सीधे शब्दों में कहें तो किसी भी काम को हमें अपने हाथ में लेने से पहले अपनी पात्रता को सिद्ध करना पड़ता हैं । यह बताना पड़ता हैं कि हाँ ! हम उस काम के लायक हैं ।

ठीक उसी तरह ईश्वर के साम्राज्य में भी, जो इस सम्पूर्ण विश्व का सञ्चालन कर्ता हैं । हमें अपनी पात्रता को सिद्ध करना पड़ता हैं । परिष्कृत व्यक्तित्व का मतलब हैं कि आदमी चरित्रवान हो ।  चरित्रवान – जो सद्भाव, सद्गुण और सद्कर्मो के सम्मुचय को अपने स्वभाव का अभिन्न अंग बना कर रखे, उसे चरित्रवान कहते हैं ।

जो सज्जन हो, संयमी हो, जो व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए नहीं परमार्थ के लिए जीता हो । ऐसा व्यक्ति ही परिष्कृत व्यक्तित्व कहाँ जा सकता हैं । ऐसे ही लोगों की साधनायें ही सफल होती हैं ।

हमें अपनी पात्रता को सिद्ध करना ही पड़ता हैं । इतिहास में ऐसे ढेरों के ढेरों उदहारण हैं जो इस बात का प्रमाण हैं । आपने रामायण तो देखि ही होगी । राजा जनक जिन्हें अपनी पुत्री सीता के लिए एक योग्य वर की तलाश थी । अतः उन्होंने सीता के योग्य वर की तलाश के लिए एक स्वयंवर रचा । सम्पूर्ण आर्यावृत के बड़े – बड़े सम्राटों को आमंत्रित किया । शर्त यह थी कि जो उनके राजदरबार में रखे भगवान शंकर के धनुष को उठा कर भंग कर देगा । सीता उसी के साथ विवाह करेगी । एक – एक करके सभी महारथी आयें । किन्तु कोई भी उसे हिला तक नहीं पाया । भगवान राम जो उस समय विश्वामित्र के साथ वहाँ आये हुये थे । विश्वामित्र की आज्ञा से वह भी स्वयंवर में भाग लेने के लिये आगे बढ़े । और धनुष को उठाकर उसके दो टुकड़े कर दिये । यह क्या था ? यह थी पात्रता की परीक्षा ।

दुनिया की जितनी भी कीमती चीज़े हैं, हमें उन्हें पाने के लिए उनकी कीमत चुकानी पड़ती हैं । सीता योग्य और विशेष थी इसलिए श्री राम को उसे पाने के लिए अपनी योग्यता को सिद्ध करना पड़ा ।
द्रोपदी योग्य और विशेष थी, अतः उसे पाने के लिए अर्जुन को भी अपनी पात्रता की परीक्षा देनी पड़ी ।

ईश्वर भी अपनी पुत्री सिद्धियों के लिए ऐसे ही पात्र व्यक्तियों की तलाश में रहता हैं । जब हम भी राम और अर्जुन के तरीके से अपनी पात्रता सिद्ध कर देते हैं तो हम भीं उनके अधिकारी हो जाते हैं । किन्तु हम साधना का दिखावा तो करते हैं । लेकिन खुद को बदलना नहीं चाहते, किन्तु भगवान को उल्लू बनाना चाहते हैं । तो हमारी साधना सफल कैसे हो सकती हैं ?

साधना का मतलब ही होता है :- “जीवन को साधकर चलना” साधना एक विज्ञान हैं हमारे अंतःकरण के परिवर्तन का, आत्मपरिष्कार का । जब तक हम अपनी अंतर आत्मा पर चढ़े जन्मजन्मान्तर के कषाय – कल्मषों के मेल को धो नहीं डालते तब तक हमारे पर साधना का रंग कैसे चढ़ सकता हैं ?

आपने देखा नहीं ! तांत्रिको को,  जो अपनी अडिग श्रृद्धा और साधना के बलबूते पर उटपटांग मन्त्रों को सिद्ध करके तांत्रिक सिद्धियाँ तो प्राप्त कर लेते हैं । किन्तु परिष्कृत व्यक्तित्व के अभाव में उनका कोई सदुपयोग नहीं कर पाते । परिणाम स्वरूप उनका दुरुपयोग करते हैं और कुछ ही दिनों में अपनी शक्तियों और सिद्धियों को भी खो बैठते हैं ।

कभी – कभी तो अपने जीवन से भी हाथ धो बैठते हैं । अगर आप सचमुच आध्यात्मिक शक्तियों के आकांक्षी हैं तो शक्ति के पीछे पड़ने से पहले अपने अंतःकरण में उसके लिए जगह बनाइए । आध्यात्मिक सिद्धियाँ कोई खिलौना नहीं, जो बच्चों को खेलने के लिए थमा दिया जाये । ईश्वर ने उन विभूतियों को ताले में बंद करके रखा हैं । और यह शर्त रखी हैं की जिस किसी को भी सिद्धियों और विभूतियों का खजाना चाहिए योग साधना का मार्ग अपना कर उस ताले की ताली (चाबी) को हांसिल करे तभी वह ताला खुलेगा ।

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