महर्षि चरक का नैतिकता | आदर्शों का महत्त्व

एक बार की बात है । महर्षि चरक औषधियों की खोज में अपने कुछ शिष्यों को लेकर जंगल में घूम रहे थे । तभी अचानक कुछ खेतों से गुजरते हुए उनकी दृष्टि एक अनोखे फुल पर पड़ी । अपने जीवन काल में उन्होंने सैकड़ो फूलों के गुणधर्मों का अध्ययन और अनुसंधान किया था, लेकिन यह अनोखा फुल उन्होंने इससे पहले कभी नहीं देखा था ।

आचार्य चरक चाहते थे कि वह उस फुल के भी गुणधर्मों का अध्ययन और अनुसंधान करें, लेकिन वह केवल उसे उत्सुकता से देख रहे थे । तभी उनके नजदीक खड़े उनके एक शिष्य ने कहा – “ आचार्य ! फुल ले आऊ ?”

तब महर्षि चरक बोले – “ सोम्य ! फुल को लेने की इच्छा तो है, किन्तु खेत के स्वामी की अनुमति के बिना फुल तोड़ना अनैतिक होगा । बिना स्वामी की आज्ञा के फुल तोड़ना चोरी कही जाएगी ।”

शिष्य बोला – “ आचार्य ! किसी महत्वपूर्ण वस्तु को बिना अनुमति के लिया जाये तो चोरी कहा जा सकता है, लेकिन यह तो एक फुल मात्र है । मुझे नहीं लगता, इसे तोड़ना भी चोरी हो सकता है !”

आचार्य चरक बोले – “ भले ही यह तुच्छ फुल है, किन्तु बिना मालिक की अनुमति के इसे तोड़ना चोरी ही कही जाएगी ।”

शिष्य बोला – “ आचार्य ! आपको तो राजा की आज्ञा है कि आप कहीं से भी कोई भी वस्तु बिना किसी की अनुमति के ले सकते है तो फिर इसमें मालिक की अनुमति की क्या आवश्यकता ?”

महर्षि चरक बोले – “ सोम्य ! राजाज्ञा और नैतिकता में बहुत बड़ा अंतर है ।

उत्सुकतावश शिष्य ने पूछा – “ कैसा अंतर, आचार्य !”

महर्षि चरक बोले – “ सोम्य ! आदर्श की स्थापना के लिए हमेशा राजाज्ञा पर नैतिकता का शिकंजा कसा होना चाहिए । राजाज्ञा होने का मतलब यह नहीं कि हम अपने आश्रितों की संपत्ति पर स्वछन्द अधिकार जतायें । राजा के आदर्शो पर ही प्रजा चलती है । गुरु के आदर्शों पर ही शिष्य चलते है । इसीलिए राजाज्ञा से नैतिकता अधिक महत्वपूर्ण है ।”

अपने शिष्य को नैतिकता की महत्ता बताते हुए महर्षि चरक तीन कोस पैदल चलकर उस किसान के घर गये । किसान की अनुमति लेकर ही उन्होंने वह फुल तोड़ा और उसके गुणधर्मों के अध्ययन और अनुसंधान में लग गये ।

नैतिकता की आवाज

एक गाँव में एक ब्राह्मण रहता था । ब्राह्मण था गरीब लेकिन दिल का बड़ा ही सच्चा और ईमानदार था । वह प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर गंगा स्नान के लिए जाया करता था । नहा धोने के बाद वह अपने घर आकर पूजा – पाठ करता था ।

हमेशा की तरह एक दिन ब्राह्मण गंगा स्नान करके आ रहा था । तभी दैवयोग से रास्ते में उसे एक पोटली पड़ी हुई दिखाई दी । ब्राहमण ने पोटली को उठाया और कोई देख लेगा इस डर से बिना खोले ही चल दिया । सोचा घर जाकर खोल लेंगे ।

घर जाकर उसने पूजा – पाठ किया और पोटली को खोलके देखा तो उसमें तीस स्वर्ण मुद्राएँ पड़ी थी । ब्राह्मण सोचने लगा कि आज तो प्रभु ने सुन ली और मुझे मालामाल कर दिया । लेकिन दुसरे ही क्षण उसकी नैतिकता जाग पड़ी । उसके दिमाग में आया कि यह पैसा कहीं किसी गरीब का तो नहीं ? हो सकता है, किसी ने बड़ी मेहनत करके ये मुद्राएँ किसी आवश्यक कार्य के लिए जुटाई हो । नैतिकता से ब्राह्मण को उसका लालच डिगा न सका । ब्राह्मण झट से उठा और गाँव के प्रधान के घर की ओर दिया । उसने सोचा कि गाँव के प्रधान को दे दूंगा ताकि वह इसे इसके असली हकदार तक पहुँचा दे ।

जब ब्राह्मण प्रधान के घर पहुँचा तो उसने देखा कि पहले से कोई व्यक्ति वहाँ बैठा था । वह व्यक्ति रो – रोकर अपना दुखड़ा सुना रहा था कि कैसे उसने दिनरात मेहनत मजदूरी करके वह मुद्राएँ जुटाई थी । ब्राह्मण वही खड़ा – खड़ा उसकी सारी बात सुन रहा था । उसे विश्वास हो गया कि यह मुद्राएँ अवश्य ही इस व्यक्ति की है । उसने मुद्राओं की पोटली उस गरीब व्यक्ति की ओर करते हुए कहा कि यह मुझे गंगा स्नान करके आते हुए मिली थी । इसलिए सोचा प्रधान जी को दे आऊ, ताकि वह इसे इसके असली हक़दार तक पहुँचा दे । लेकिन अब मुझे लगता है कि उसका असली हक़दार तो मेरे सामने खड़ा है । यह कहते हुए उसने वह पोटली उस व्यक्ति को दे दी ।

अपनी मुद्राओं की पोटली पाकर वह व्यक्ति ख़ुशी से नाचने लगा । ब्राह्मण ने कहा –“ गिन लीजिये !” तो वह बोला – “ आप जैसे ईमानदार व्यक्ति पर संदेह कैसा ?” इतना कहकर दो स्वर्ण मुद्राएँ निकालकर उसने ब्राह्मण की ओर की और कहा – “ ये लीजिये ! आपका पुरस्कार ।”

तो ब्राह्मण बोला – “ नहीं ! यह आपने बड़ी मेहनत से कमाई है, इसलिए आप ही रखिये । ये मुद्राएँ आपको देकर मुझे जो संतोष का आनंद हो रहा है, उसकी तुलना में यह पुरस्कार कुछ भी नहीं ।” यह कहकर ब्राह्मण और वह व्यक्ति दोनों अपने – अपने घर चले गये ।

शिक्षा – यह दोनों कहानियाँ एक दुसरे की पूरक है । पहली कहानी से शिक्षा मिलत  है कि आदर्शो की स्थापना के लिए नैतिकता का पालन जरुरी है । लेकिन दूसरी कहानी बताती है कि यदि आदर्शों का पालन करने से संतोष रूपी आनंद की प्राप्ति भी होगी ।

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