राजकुमार सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध की कहानी

लगभग ५०० ईसा पूर्व की बात है कि शाक्य गणराज्य की राजधानी कपिलवस्तु के राजकुमार गौतम रथ पर सवार होकर भ्रमण के लिए जा रहे थे । अकस्मात राजमार्ग पर उन्हें एक लड़खड़ाता हुआ जराजीर्ण वृद्ध जाता हुआ दिखाई दिया । वृद्धावस्था ने उसकी शरीर की क्षमता को क्षीण कर दिया था । आँखे धंस चुकी थी और शरीर सूख चूका था । हाथ – पैर भी साथ देने की स्थिति में नहीं दिखाई दे रहे थे । पेट की क्षुधा को शांत करने के लिए वह लाचार होकर दर – दर भटक रहा था ।
 
वृद्ध की ऐसी दुर्दशा को देख राजकुमार गौतम ने सारथि से रथ वही रोकने को कहा और पूछने लगे – “ क्या हर मनुष्य की ऐसी ही दुर्दशा होती है ?”
 
सारथि बोला – “ हाँ राजकुमार ! यह तो संसार का नियम है, जो जन्मा है, वह जवान भी होगा और जो जवान है, वह बुढा भी होकर एक दिन इस जग से विदा हो जायेगा । यही इस जग की रीत है ”
 
राजकुमार गौतम अब तक इस अटल सत्य से अनजान थे । अब तक उन्होंने यौवन का आनंद लिया था किन्तु अब उन्हें वृद्धावस्था का शौक सताने लगा । सारथि की यह बात उनके ह्रदय की गहराइयों में इस कदर उतर गई कि उनका मेरुदण्ड हिल उठा । आज वृद्ध की दशा को देखकर उनके मन के घोड़ों ने अपनी सोच की दिशाएं बदल दी । आज उन्हें जीवन की क्षण भंगुरता का भान हो गया ।
 
इस घटना के पश्चात् राजकुमार गौतम का जीवन क्रम बदल गया । वह संसार से उदासीन रहने लगे और उस शाश्वत सुख की खोज करने लगे जो कभी क्षीण ना हो । वह उस परम मार्ग की खोज करने लगे जिससे सम्पूर्ण मानवता को दुःख, रोग और शोक के गर्त में गिरने से बचाया जा सके ।
 
राजकुमार गौतम के वीतराग को देखकर उनके पिता महाराज शुद्धोधन बहुत चिंतित रहने लगे । उन्हें संदेह था कि सिद्धार्थ कही वैरागी और साधू – सन्यासी ना हो जाये । इसलिए उन्होंने राजकुमार सिद्धार्थ को सांसारिक सुखों में ही लगा रहने की योजना बनाई । उन्होंने राजकुमार के लिए विभिन्न भोग – विलास की सामग्री उपलब्ध करवाई, नाच – गान व सुन्दर नर्तकिया प्रस्तुत की गई, किन्तु महाराज शुद्धोधन के सभी प्रयास असफल रहे । सिद्धार्थ भौतिक सुखों की नश्वरता को जान चुके थे ।
 
सिद्धार्थ के मन की व्याकुलता इतनी अधिक बढ़ गई कि एक दिन आधी रात को मौका देख राजकुमार सिद्धार्थ अपनी पत्नी यशोधरा, पुत्र राहुल और पिता व कपिलवस्तु का साम्राज्य छोड़ वन की ओर निकल गये । मानवता को दुःख, रोग और शोक से मुक्त करने वाली संजीवनी की खोज में निकले राजकुमार गौतम उसी दिन से वीतराग गौतम हो गये ।
 
अब वह अपने कुछ सन्यासी साथियों के साथ बीहड़ जंगलो में रहकर तपस्या करने लगे । विरक्त सिद्धार्थ ने पहले योग साधना सीखी । लेकिन जब उससे संतोष नहीं हुआ तो उन्होंने तरह – तरह से तपस्या करना शुरू कर दिया । ज्ञान की प्राप्ति के लिए उन्होंने आहार लेना ही बंद कर दिया । लेकिन कठोर तपस्या के कारण उनका शरीर पिला पड़ गया और सूखने लगा । इस तरह तपस्याओं में छः वर्ष बीत गये लेकिन सिद्धार्थ की तपस्या सफल नहीं हुई ।
 
वैशाख पूर्णिमा के दिन सिद्धार्थ एक वटवृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान कर रहे थे । तभी समीप के गाँव में सुजाता नाम की स्त्री को पुत्र हुआ । उसने अपने बेटे के लिए वटवृक्ष से मनौती मांगी थी । अतः वह सोने के थाली में खीर लेकर वहाँ गई । सिद्धार्थ के सूखे शरीर को देखकर उसने कहा – “ हे तपस्वी ! वीणा के तारों को इतना भी मत कसो कि वह टूट जाये और इतना भी ढीला न छोडो कि उनसे कोई स्वर ही न निकले ।” यह कहकर उसने वह खीर सिद्धार्थ को भेंट कर दी और कहा – “ जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई, उसी तरह तुम्हारा भी मनोरथ पूर्ण हो ।” इतना कहकर वह चली गई ।
 
इससे उन्होंने जाना कि “समत्वं योग उच्यते” अतः उन्होंने मध्यम मार्ग का अनुसरण किया ।
 
उसी रात सिद्धार्थ ध्यान से समाधि में प्रवेश कर गये और उनकी साधना सफल हुई और उन्हें सच्चा बोध हुआ । तबसे सिद्धार्थ महात्मा बुद्ध कहलाये । जिस वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान मिला वह “बोधिवृक्ष” कहलाया और जिस स्थान पर उन्हें ज्ञान हुआ वह “बोधगया” नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
 
शिक्षा – महात्मा बुद्ध की इस कहानी से दो शिक्षायें मिलती है कि पहली तो यह कि प्रत्येक मनुष्य को समय रहते जीवन की क्षणभंगुरता को समझ लेना चाहिए और अपने परलोक को सुधारने का तनिक प्रयास करना चाहिए ।
 
दूसरी शिक्षा इस कहानी यह मिलती है कि प्रत्येक तपस्वी साधक को शरीर के साथ इतनी भी सख्ती नहीं बरतनी चाहिए कि शरीर साथ देना ही छोड़ दे, न ही इतना विषय भोगों में लगा जाये कि आत्म कल्याण की बात ही भूल जाये । बल्कि इन दोनों के बीच संतुलन बनाते हुए मध्य का मार्ग अपनाना चाहिए । समत्वं योग उच्यते ।

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