महर्षि दयानंद और ब्रह्मचर्य की शक्ति

महर्षि दयानंद के जीवन की ब्रह्मचर्य को लेकर कुछ ऐसी सत्य घटनाएँ है, जो आश्चर्यजनक है किन्तु सत्य है । यह दृष्टान्त आज के युवाओं के लिए प्रेरणा के स्त्रोत हो सकते है । इस उद्देश्य को लेकर उनमें से एक  दृष्टान्त का उल्लेख इस लेख में किया गया है ।
 
उदयपुर के महाराणा सज्जन सिंह महर्षि दयानंद के मित्र थे । बाद में शिष्य बन गये । एक बार महर्षि दयानंद से उदयपुर गये तब महाराणा सज्जन सिंह उनके निवास स्थान पर उनसे मिलने गये ।
 
महाराणा सज्जन सिंह ने कहा – “मैं धन्य हो गया, स्वामीजी ! जो आपके परम पवित्र चरण मेरी राजधानी में पड़े । मैं चिरकाल से आपके आगमन की प्रतीक्षा कर रहा था । सारा उदयपुर आपके दर्शन के लिए उत्सुक था ।” इस तरह प्रणाम करते हुए महाराणा ने स्वामीजी का स्वागत किया ।
 
मुस्कुराते हुए स्वामीजी बोले – “ चिरंजीव हो !” कुर्सी की ओर संकेत करते हुए कहा –“आइये ! विराजिये !”
 
महाराणा – “ नहीं नहीं स्वामीजी ! मैं नीचे ही ठीक हूँ ।” इस तरह शालीनता का परिचय देते हुए महाराणा नीचे बैठ गये ।
 
इसके बाद एक दुसरे की कुशल क्षेम पूछने के बाद महाराणा ने स्वामीजी से उपदेश देने के लिए आग्रह किया ।
 
तब स्वामीजी बोले – “ राजन ! मुझे यह देखकर बड़ा दुःख होता है कि प्रत्येक भारतीय विषय वासना में पड़कर अपने मन और शरीर के ओज को खो रहा है । निरंतर बढ़ती विलासिता ब्रह्मचर्य जैसे पवित्र को विचार को धूमिल करती जा रही है । साधनों से संपन्न लोग जैसे राजा और उनके सेवकों पर वासना का भूत बुरी तरह से हावी है । जिसके कारण वे अपने राजकाज के कार्य भी यथाविधि संपन्न नहीं कर  पाते । यदि ऐसे ही चलता रहा तो जल्द ही पुरे भारत पर मानसिक गुलामी छा जाएगी ।”
 
महाराणा बोले – “ आपकी बात सही है, स्वामीजी ! निसंदेह मनुष्य ब्रह्मचर्य से दूर होकर पाप की ओर बढ़ रहा है । लेकिन ब्रह्मचर्य की ऐसी शिक्षा का व्यापक स्तर पर शिक्षण भी तो संभव नही ।
 
स्वामीजी बोले – “ क्यों संभव नहीं ? ब्रह्मचर्य की महिमा और शक्ति को उत्तमता से बताकर इस अधर्म और अत्याचार से लोगों को बचाया जा सकता है ।”
 
तब महाराणा बोले – “स्वामीजी ! आप एक बार जोधपुर जाकर महाराज यशवंत सिंह की को संयम की महिमा बताइए । हो सकता आपके कहने से वो सही राह पर आ जाये ।”
 
स्वामीजी – “ जी मैं जोधपुर अवश्य जाऊंगा और महाराज यशवंत सिंह को इस महापाप से मुक्ति दिलाऊंगा ।” इतना कहकर स्वामीजी और महाराणा दोनों खड़े हो गये और बाहर की ओर चलने लगे । जाते – जाते महाराणा स्वामीजी को संदेह से देख रहा था ।
 
आखिरकार महाराणा बोल उठा – “ स्वामीजी ! आप ब्रह्मचर्य की बड़ी महिमा गाते है, बड़ी शक्ति बताते है । जहाँ तक मुझे पता है, सभी आपको अखण्ड ब्रह्मचारी भी मानते है । किन्तु मुझे तो आपमें कोई विशेष शक्ति दृष्टिगोचर नहीं होती ।
 
राजा की यह बात सुनकर स्वामीजी उसकी दुविधा समझ गये और बोले – “ क्या आपने कभी मेरी शक्ति की परीक्षा की है ? बिना परीक्षा किये आप अपने मन से कुछ भी अनुमान लगा सकते है । आपको पता भी है ! भारतवर्ष में चिरकाल से एक बाल विवाह की एक ऐसी बीमारी चली आ रही है जो ब्रह्मचर्य आश्रम को कभी पूरा नहीं होने देती है । संभवतः मेरे माता – पिता का भी ब्रह्मचर्य आश्रम पूर्ण नहीं हुआ होगा । जिसका प्रभाव संतान पर पड़ना अवश्यंभावी है । जब मूल ही कच्ची है तो वृक्ष क्या खाक चलेगा । जब शरीर का विकास ही नहीं हुआ तो बल और बुद्धि का विकास कहाँ से होगा ? उस समय की कल्पना करो जब भीष्म और भीम जैसे धुरंधर योद्धा हुए । अर्जुन और कर्ण जैसे धनुर्धर हुए । राम और लक्ष्मण जैसे परमवीर हुए । जिन्हें इतिहास आज भी जानता है ।”
 
यह सुनकर महाराणा बोला – “ संभव है स्वामीजी ! आपकी बात सही हो और आज के ब्रह्मचर्य पालन में पहले जैसी शक्ति न रही हो, लेकिन फिर भी एक ब्रह्मचारी और एक गृहस्थ में कोई तो विशेष अंतर होना चाहिए ना । यदि ऐसा कोई प्रत्यक्ष प्रमाण आप दे सके, मुझे भी विश्वास हो जाये ”
 
स्वामीजी मुस्कुराते हुए बोले – “ अच्छी बात है, जब समय आएगा तो आपको इसका प्रमाण भी मिल जायेगा ।”
 
जाते – जाते महाराणा बोला – “ माफ़ कीजियेगा स्वामीजी ! आपको बुरा लगा हो तो । मेरी दुविधा थी अतः पूछ लिया ।  बाकि आप तो हमारे गुरु है । प्रणाम !”
 
स्वामीजी – “ इसमें माफ़ी मांगने जैसा कुछ नहीं । आपने अपने मन की शंका मुझे बताई, यह तो अच्छी बात है ।”
 
यह कहकर महाराणा अपने अपने दो धोड़े की बग्घी पर सवार हो गया और अपने सारथि से बोला, “चलो !” सारथि ने घोड़ो चलने का इशारा दिया । लेकिन घोड़े चले नहीं । उसने हंटर बरसाना शुरू कर दिया लेकिन बग्घी जहाँ की तहाँ खड़ी हिलने का नाम नहीं ले रही थी । बिचारे घोड़े उसी जगह कूद – कूदकर थक गये । तभी महाराज ने पीछे मुड़कर देखा तो देखकर हैरान रह गये । अखण्ड ब्रह्मचारी महर्षि दयानंद ने बग्घी का एक पहिया अपने एक हाथ से पकड़ रखा था ।
 
स्वामीजी बोले – “ देख लो महाराणा ! ब्रह्मचर्य की शक्ति का यह है प्रत्यक्ष प्रमाण । अब मिल गया आपको अपने प्रश्न का उत्तर । ये तो दो घोड़े है, यदि चार भी होते तो भी नहीं हिलने वाली थी ।”
 
महाराणा झट से बग्घी से उतरकर स्वामीजी के पेरों में गिर पड़ा और बोला – “ धन्य हो प्रभु, आप धन्य हो । यह मेरी भूल थी जो मैंने आपको चुनौती दी । आपसे प्रमाण माँगा । अब मैं समझ गया हूँ कि ब्रह्मचर्य की ताकत के आगे किसी की नहीं चलती । अब मेरी शंका का समाधान हो चूका है । मुझपर कृपा करने के लिए कोटि कोटि नमन !”
 
उसके बाद स्वामीजी ने आशीर्वाद देकर सकुशल महाराणा को विदा किया ।
 
शिक्षा – इस सत्य घटना से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें भी महर्षि दयानन्द की तरह यथासंभव संकल्पपूर्वक संयम का पालन करके अपनी शारीरिक और मानसिक शक्तियों का विकास करना चाहिए ।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *