गृहस्थ और सन्यासी

गृहस्थ बड़ा या सन्यासी – प्रेरणाप्रद कहानी

प्राचीन समय की बात है । किसी नगर में एक विचित्र राजा रहता था । उस राजा की एक बड़ी ही अजीब आदत थी । जब भी नगर में कोई साधू या सन्यासी आता था तो वह उसे बुलाकर पूछता था कि – “ गृहस्थ बड़ा या सन्यासी ?”

जो भी बताता कि गृहस्थ बड़ा है । वह राजा उससे कहता था कि – “ तो फिर आप सन्यासी क्यों बने ? चलिए गृहस्थ बनिए !” इस तरह वह उस सन्यासी को भी गृहस्थ बनने का आदेश देता था ।

जो बताता कि सन्यासी बड़ा है । वह उससे प्रमाण मांगता था । जो यदि वह प्रमाण न दे सके तो वह उसे भी गृहस्थ बना देता था । इस तरह कई संत आये और उन्हें सन्यासी से गृहस्थ बनना पड़ा ।

इसी बीच एक दिन नगर में एक महात्मा का आगमन हुआ । उसे भी राजा ने बुलाया और अपना वही पुराना प्रश्न पूछा – “ गृहस्थ बड़ा या सन्यासी ?”

महात्मा बोले – “ राजन ! न तो गृहस्थ बड़ा है, न ही सन्यासी, जो अपने धर्म का पालन करें । वही बड़ा है ।

राजा बोला – “ अच्छी बात है । क्या आप अपने कथन को सत्य सिद्ध कर सकते है ?”

महात्मा ने कहा – “ अवश्य ! इसके लिए आपको मेरे साथ चलना होगा ।” राजा महात्मा के साथ चलने के लिए तैयार हो गया ।

दुसरे ही दिन दोनों घूमते – घूमते दुसरे राज्य निकल गये । उस राज्य में राजकन्या का स्वयंवर हो रहा था । दूर – दूर के राजा – राजकुमार आये हुए थे । बड़े ही विशाल उत्सव का आयोजन किया हुआ था । राजा और महात्मा दोनों उस उत्सव में शामिल हो गये ।

स्वयंवर का शुभारम्भ हुआ । राजकन्या राजदरबार में उपस्थित हुई । वह बड़ी ही रूपवती और सुन्दर थी । सभी राजा और राजकुमार स्तब्ध होकर उसे देख रहे थे और मन ही मन उसे पाने की कामना कर रहे थे ।

राजकन्या के पिता का कोई वारिस नहीं था । इसलिए महाराज राजकन्या द्वारा स्वयंवरित राजकुमार को ही अपने राज्य का उत्तराधिकारी घोषित करने वाला था ।

राजकुमारी अपनी सखियों के साथ राजाओं के बीच घुमने लगी । वहाँ उपस्थित सभी राजाओं को देखने के पश्चात भी उसे कोई पसंद नहीं आया । राजा निराश होने लगे । राजकुमारी के पिता भी सोचने लगे कि स्वयंवर व्यर्थ ही जायेगा, क्योंकि राजकुमारी को तो कोई वर पसंद ही नहीं आया ।

तभी वहाँ एक तेजस्वी सन्यासी का आगमन हुआ । सूर्य के समान उसका चेहरा कांति से चमक रहा था । तभी राजकुमारी की दृष्टि उस युवा सन्यासी पर पड़ी । देखते ही राजकुमारी ने अपनी वरमाला उसके गले में पहना दी ।

अचानक हुए इस स्वागत से वह युवा सन्यासी अचंभित हो गया । उसने तुरंत वस्तुस्थिति को समझा और तत्क्षण उस माला को अपने गले से निकालते हुए कहा – “ हे देवी ! क्या तुझे दीखता नहीं ! मैं एक सन्यासी हूँ । मुझसे विवाह के बारे में सोचना तेरी भूल है ।”

तभी राजा ने सोचा – “ लगता है यह कोई भिखारी है जो विवाह करने से डर रहा है ।” उन्होंने अपनी घोषणा दुबारा दोहराई – “ हे युवक ! क्या तुम्हें पता भी है । मेरी पुत्री से विवाह करने के बाद तुम इस सम्पूर्ण राज्य के मालिक हो जाओगे । क्या फिर भी तुम मेरी पुत्री का परित्याग करोगे ?”

सन्यासी बोला – “ राजन ! मैं सन्यासी हूँ और विवाह करना मेरा धर्म नहीं है । आप अपनी पुत्री के लिए कोई अन्य वर देखिये ।” इतना कहकर वह वहाँ से चल दिया । किन्तु वह युवक राजकुमारी के मन में बस चूका था । उसने भी प्रतिज्ञा की कि “ मैं विवाह करूंगी तो उसी से अन्यथा अपने प्राण त्याग दूंगी ।” इतना कहकर वह भी उसके पीछे – पीछे चली गई ।

वह राजा और महात्मा जो यह वृतांत देख रहे थे । उनमें से महात्मा ने कहा – “ चलो ! हम भी उनके पीछे चलकर देखते है, क्या परिणाम होता है ?” वह दोनों भी राजकुमारी के पीछे – पीछे चलने लगे ।

चलते चलते वह एक घने जंगल में पहुँच गये । तभी वह युवा सन्यासी तो कहीं अदृश्य हो गया और राजकुमारी अकेली रह गई । घने जंगल में किसी को न देख राजकुमारी व्याकुल हो उठी । तभी यह राजा और महात्मा उसके पास पहुँच गये और उन्होंने राजकुमारी को समझाया । यह दोनों उसे उसके पिता के पास छोड़ने के लिए ले जाने लगे ।

वह जंगल से बाहर निकले ही थे कि अँधेरा हो गया । सर्दी की काली अंधियारी रात थी । भटकते – भटकते यह तीनो एक गाँव में पहुंचे । यह गाँव के चौपाल पर जाकर बैठ गये । बहुत सारे लोग वहाँ से गुजरे लेकिन किसी ने इन ठण्ड से ठिठुरते मुसाफिरों का हाल तक नहीं पूछा ।

तभी वहाँ से एक गाड़ीवान गुजरा । वह अपनी पत्नी और बच्चों के साथ खेत से घर आ रहा था । उसने देखा कि वह तीनों ठण्ड से ठिठुर रहे है । वह उनके पास गया और पूछताछ कि तो महात्मा ने भटके हुए मुसाफ़िर बता दिया ।

किसान बोला – “ हे अतिथिदेव ! अगर आप चाहे तो आज रात मेरे घर ठहर सकते है ।” वह उनको घर ले गया । भोजन की पूछी और भोजन करवाया । उस दिन उनके घर में ज्यादा अनाज नहीं था । अतः किसान और उसकी पत्नी ने अपने हिस्से का भोजन अतिथियों को करवा दिया और स्वयं भूखे ही सो गये ।

सुबह हुई । राजकन्या को उसके पिता के पास छोड़कर राजा और सन्यासी दोनों वापस अपने नगर को चल दिए ।

महात्मा ने राजा से कहा – “ देखा राजा ! राजकन्या और राज्य को छोड़ने वाला वह सन्यासी अपनी जगह बड़ा है और हमारे अतिथि सत्कार के लिए स्वयं भूखा सोने वाला वह गृहस्थ किसान अपनी जगह बड़ा है । एक तरफ सन्यासी ने राज, वैभव और रमणी का तनिक भी मोह न करके अपने धर्म का पालन किया है, इसलिए वह निश्चय ही महान है । दूसरी तरह उन दंपति ने अपना व्यक्तिगत स्वार्थ न देखकर अतिथिसेवा को प्रधानता दी, इसलिए वह दोनों भी निश्चय ही महान है ।”

“ किसी भी देश, काल और परिस्थिति में अपने धर्म – कर्तव्य का पालन करने वाला मनुष्य ही बड़ा होता है । फिर चाहे वह गृहस्थ हो या सन्यासी, कोई फर्क नहीं पड़ता ।”

इस तरह महात्मा ने अपनी बात को सत्य सिद्ध किया ।

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