सिद्ध पूरुष और सिद्धि का विज्ञान

एक समय की बात है, एक गाँव में सुधांशु नाम का एक ब्राह्मण बालक रहता था । सुधांशु बड़ा ही बुद्धिमान, चतुर और जिज्ञासु प्रवृति का था । वह अक्सर अपनी माँ ज्ञानदेवी को तरह –तरह के प्रश्न पूछकर परेशान कर दिया करता था ।

एक दिन गाँव में  बड़े ही प्रसिद्ध संत का आगमन हुआ । गाँव के कुछ गणमान्य सदस्यों ने मिलकर योगी महाराज से जन कल्याण में प्रवचन करने हेतु निवेदन किया । इधर पुरे गाँव में योगी महाराज के सिद्ध पुरुष होने के चर्चे चल रहे थे ।

इस बात की चर्चा सुधांशु के घर में भी चल रही थी । अतः सुधांशु के मन में सहज जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि यह सिद्धपुरुष क्या होता है ? उसने अपनी माँ से पुछा तो माँ ने कहा, “ बेटा सिद्धपुरुष उसे कहते है, जो असामान्य क्षमताओं से सम्पन्न हो ।”

सुधांशु बोला, “ माँ ! असामान्य क्षमताएँ क्या होती है ? और इनसे कैसे संपन्न हुआ जा सकता है ?”
बालबोध स्तर का प्रश्न था । अतः माँ ने यह कहकर टाल दिया कि यह तो तुझे कल प्रवचन में पता लग जायेगा ।
अगले ही दिन प्रातःकाल स्वामीजी प्रवचन का आरम्भ हुआ । सुधांशु प्रवचन में सबसे पहली पंक्ति में जाकर बैठा और उनके प्रत्येक शब्द को बड़े ध्यान से सुना, परन्तु उसे अपने प्रश्न का उत्तर नहीं मिला । जब अन्त में महाराजजी प्रवचन समाप्त करके जाने लगे तो सुधांशु ने डरते हुये उनके निकट जाकर पुछा “महाराजजी सिद्धपुरुष किसे कहते है ?”

एक अबोध बालक से ऐसा प्रश्न सुन स्वामीजी हंसी के साथ मुस्कुराते हुये बोले, “ तुम्हारा नाम क्या है ? भैया !”
महाराजजी से भैया का संबोधन सुन सुधांशु का डर खत्म हो गया ।

इस बार निडरता से बोला, “मेरा नाम सुधांशु है । महाराजजी !”

स्वामीजी बोले, “ सुधांशु ! कितना सुंदर नाम है ! क्यों जानना चाहते हो सिद्धपुरुषों के बारे में ?”

सुधांशु बिना किसी छुपाव के बोला, “माँ कहती है, सिद्ध पुरुषों के पास असामान्य क्षमताएँ होती है । वे असामान्य क्षमताएँ क्या है ? यह मुझे जानना है ।”

स्वामीजी ने सुधांशु से पूछा, “ क्या करोगे जानकर ?”

सुधांशु बोला, “मैं भी आपकी तरह असामान्य बनना चाहता हूँ ।”

स्वामीजी ने देखा कि सुधांशु की ज्ञान पिपासा निश्छल है । क्षण भर में उन्होंने उसकी अंतरात्मा की जिज्ञासा की थाह पा ली । उन्होंने उसे आत्मज्ञान का अधिकारी समझा और अपना शिष्य बनाने का निश्चय किया ।
सद्गुरु पल भर में असली शिष्य की पहचान कर लेता है ।

स्वामीजी बोले, “किन्तु सब वह जानने तथा मेरे जैसा बनने के लिए तुम्हे मेरा शिष्य बनना पड़ेगा । क्या तुम शिष्य बनने के लिए तैयार हो ?”

सुधांशु बोला, “आपका शिष्य होने के लिए क्या करना होगा ?”

स्वामीजी बोले, “सात दिन तक प्रतीक्षा करनी होगी और साथ ही प्रतिदिन प्रवचन में पहली पंक्ति में आकर बैठना पड़ेगा ।”

सुधांशु बोला, “ठीक है, महाराजजी !” स्वामीजी अपने आश्रम की और चल दिए और सुधांशु अपने घर लौट आया ।

महाराजजी सुधांशु के बारे में मन ही मन यह सोच प्रसन्न हो रहे थे कि “महानता को सुनते तो सब है, किन्तु उसे जीवन में धारण करने की क्षमता रखने वाले बहुत कम मिलते है ।”

सात दिन तक सुधांशु ने अक्षरंश महाराजजी की आज्ञा का पालन किया । आज सांतवा दिन था । प्रवचन समाप्त हो चूका था । सुधांशु राह में खड़ा महाराजजी की प्रतीक्षा कर रहा था । स्वामीजी के आते ही उसने अपना प्रश्न दोहराया ।

स्वामीजी हँसते हुये बोले, “चलो ! हमारे आश्रम वही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दूंगा ।” सुधांशु उनके शिष्यों के साथ उनके आश्रम की ओर चल दिया ।

आश्रम पहुंचकर उन्होंने जलपान किया और फिर एक पेड़ की छाँव में जाकर बैठ गये ।

महाराजजी – वत्स सुधांशु ! क्या तुमने कुम्हार को मटका बनाते हुये देखा है ?

सुधांशु – हाँ महाराज जी ! देखता हूँ । मेरे घर के निकट एक कुम्हार रहता है ।

महाराजजी – तो फिर तो तुम्हे यह भी पता होगा कि मटके किस चीज़ के बने होते है ? और उसके गुणधर्म क्या है ?

सुधांशु – मटके तो मिट्टी के बनते है । किन्तु गुणधर्म क्या है ?

महाराजजी – बताता हूँ । अभी बस इतना समझ लो कि सामान्य आदमी मिट्टी है और सिद्ध योगी मटका ।

सुधांशु – मैं कुछ समझा नहीं महाराजजी !

महाराजजी – मिट्टी और मटके में क्या अंतर होता है ?

सुधांशु – मिट्टी तो सब जगह बिखरी पड़ी रहती है, जो जहाँ – तहाँ हवा के झोंको से उड़ती फिरती है । जो कभी आँखों में गिरती है, तो कभी हमारे घरों को धुल से भर देती है । जबकि मिट्टी से बना घड़ा हर प्रकार हर प्रकार से हमारे लिए उपयोगी सिद्ध होता है ।

महाराजजी – बिलकुल सही, सुधांशु ! तुम तो बड़े दार्शनिक हो । यही अन्तर सिद्ध और सामान्य मनुष्य में होता है ।
सुधांशु – कैसे ?

महाराजजी – सुनो ! जिस तरह जब तक मिट्टी का पानी के साथ संस्कार नहीं होता, वह अनुपयोगी होती है । ठीक उसी तरह मनुष्य का भी जब तक ईश् चेतना के साथ संस्कार नहीं होता वह भी वैश्विक स्तर पर अनुपयोगी होता है । यदि वह दुष्टता के साथ संस्कारित हो जाये तो इस सृष्टी के लिए अनर्थ ला सकता है ।

जैसे जब मिट्टी को जल से संस्कारित करके आवे में पकाकर घड़ा बनाया जाता है, तो वह मनुष्य के लिए बहुमूल्य पात्र की तरह उपयोगी हो जाता है । जिस तरह  मिट्टी को हल से खोदकर बीज – पानी डालकर बहुमूल्य फसल प्राप्त की जा सकती है ।

उसी तरह जब योग साधना के माध्यम से मिट्टी की तरह बिखरे हुये इस मन को समेटकर, ईश् चेतना से संसकारित करके तप की अग्नि में तपाया जाता है तो यह भी घड़े की तरह अमूल्य हो जाता है । इसी ईश् चेतना से परिष्कृत मनुष्य के सधे हुये मन रूपी घड़े में ईश्वरीय सिद्धियाँ और विभूतियाँ ईश्वर के उपहार के रूप में प्रकट होती है । जिनके प्रभाव से वह मानव से महामानव और देवता हो जाता है । इस सृष्टि में उसके लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं रहता । किन्तु इस ब्रह्मवर्चस की अमूल्य फसल को पाने के लिए अपनी कठोर मनोभूमि को आत्मसमीक्षा के हल से जोतना पड़ता है । फिर स्वाध्याय के माध्यम से काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार रूपी दुर्गुणों का कूड़ा – कर्कट साफ करना पड़ता है । तत्पश्चात सद्गुणों की बुवाई करके मनोभूमि को निर्मल बनाया जाता है । जिससे अंतःकरण शुद्ध होकर ईश्वर का घर बनने लायक हो जाता है । अब ध्यान योग और साधना के माध्यम से इस मन्दिर में ईश्वर की प्रतिष्ठापना की जाती है । अब जहाँ ईश्वर की प्रतिष्ठापना हो जाती है, वहाँ भला किस बात की कमी हो सकती है ।

यह कह महाराजजी हंसने लगे । ऐसे अपूर्व आत्मज्ञान को पाकर सुधांशु अनंत शांति की अवस्था में चला गया ।
स्वामीजी के हंसने से उसने आंखे खोली और बोला, “आपका बहुत बहुत धन्यवाद गुरुजी इस दुर्लभ ज्ञान से अवगत कराने के लिये ।”

महाराजजी – वत्स ज्ञान की सार्थकता तब तक नहीं है, जब तक की उसे आत्मसात न किया जाये ।
मनुष्य यदि उच्च स्तरिय आदर्शो के प्रति अपने अन्तःकरण में सघन प्रेम जगा सके तो वही प्रेम श्रृद्धा विश्वास रूपी परमेश्वर के रुप में प्रकट होता है ।

अध्यात्म में जो प्रयोग किये जाते है, वे मन की केवल व्यवस्था बिठाते है । फिर जो मिलता है, वह व्यवस्था का परिणाम होता है ।

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