रामकृष्ण परमहंस के प्रेरक प्रसंग | Ramkrishna Paramhansa in Hindi

भगवान को किस चीज़ का लोभ

रामकृष्ण परमहंस के मथुरा बाबू नाम के एक शिष्य थे । एक बार उन्होंने एक सुन्दर मंदिर बनवाया और उसमें भगवान विष्णु की मूर्ति की स्थापना करवाई । मूर्ति को विभिन्न प्रकार के बेशकीमती वस्त्राभूषणों से सजाया गया । दूर – दूर से लोग इस अनोखे मंदिर और मूर्ति के दर्शनार्थ आने लगे ।

तभी एक रात कुछ चोर मंदिर में घुसे और मूर्ति के सभी बेशकीमती आभूषणों को चुरा ले गये । सुबह जब लोगों ने देखा तो चारों ओर खबर आग की तरह फ़ैल गई । जब यह  बात मथुरा बाबू को पता चली तो वह दौड़े – दौड़े मंदिर चले आये ।

भगवान विष्णु की मूर्ति के सामने खड़े दुखी होकर बोले – “ भगवान ! आपके पास तो गदा और चक्र जैसे भयंकर हथियार है, जिनसे आपने कितने ही दुष्ट राक्षसों को मौत के घाट उतार दिया । फिर भी चोर आपके वस्त्राभूषण चोरी कर गये और आपने कुछ नहीं किया । आपसे तो हम मनुष्य अच्छे जो कमसे कम थोड़ा बहुत विरोध तो कर ही लेते है ।

रामकृष्ण परमहंस उस समय वही पास ही खड़े सब सुन रहे थे । वह मुस्कुराते हुए बोले – “ मथुरा बाबू ! भगवान को तुम्हारी तरह वस्त्राभूषणों का कोई लोभ – मोह नहीं, जो दिन रात अपनी नींद खराब करके उनकी चौकीदारी करें । और भगवान को कमी किस बात की है, जो उन तुच्छ गहनों के अपने अमोघ अस्त्रों का प्रयोग करें ।”

मथुरा बाबू ने शर्म से सिर झुका लिया ।

अहंकार की जड़

एक बार रामकृष्ण परमहंस के दो शिष्य इस बात पर झगड़ रहे थे कि “ हम दोनों में से कौन अधिक श्रेष्ठ है ?” लड़ते – झगड़ते बात गुरुदेव तक जा पहुँची । उन्होंने परमहंसजी से जाकर पूछा – “ गुरुदेव ! आप ही बताइए, हम दोनों में से कौन अधिक श्रेष्ठ है ?”

जब परमहंसदेव ने यह बात सुनी तो बोले – “ तुम इतनी सी बात पर झगड़ रहे थे । तुम्हारे प्रश्न का उत्तर तो बहुत ही सरल है । जो दुसरे को अपने से बड़ा और श्रेष्ठ समझता है, वही श्रेष्ठ है ।”

यह सुनकर दोनों शिष्य बोलने लगे – “ तू श्रेष्ठ, नहीं तू श्रेष्ठ ।” परमहंस जी मुस्कुराने लगे ।

मुक्त आत्माओं की स्थिति

एक बार रामकृष्ण परमहंस अपने कुछ शिष्यों के साथ टहलते हुए नदी किनारे पहुंचे । वहाँ उन्होंने देखा कि कुछ मछुआरे मछलियाँ पकड़ रहे थे । अपने शिष्यों को नदी के निकट ले जाकर परमहंस जी बोले – “ देख रहे हो, जाल में फंसी इन मछलियों को !”

वहाँ जाल में कई मछलियाँ फंसी हुई थी । जिनमें से कुछ तो निश्चेष्ट पड़ी थी । निकलने का कोई प्रयास नहीं कर रही थी । उन्हीं में से कुछ मछलियाँ निकलने का प्रयास तो कर रही थी लेकिन निकल नहीं पा रही थी । उन्हीं में से कुछ ऐसी थी, जो अपने प्रयास में कामयाब हो गई और वापस जल में तैरने लगी ।

परमहंसदेव अपने शिष्यों से बोले – “ जिस तरह इस जाल में तीन प्रकार की मछलियाँ है, उसी तरह मनुष्य भी तीन प्रकार के होते है । पहले वो जिन्होंने संसारिकता के बंधन को स्वीकार कर लिया है और इसी में मरने खपने को तैयार है । ऐसे लोग इस मायाजाल से निकलने की कोशिश तक नहीं करते है । दुसरे वो जो कोशिश तो करते है, लेकिन मुक्तिबोध तक तक नहीं पहुँच पाते । तीसरे वो जो कोशिश भी करते है और अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त करने में कामयाब हो जाते है ।”

तभी एक शिष्य बोला – “ गुरुदेव ! एक और प्रकार के लोग होते है जिनके बारे में आपने नहीं बताया ?”
परमहंस जी बोले – “ हाँ, चोथे प्रकार के लोग वे महान आत्माएं होती है जो इस मायाजाल के निटक ही नहीं आते है । फिर उनके फसने का तो प्रश्न ही नहीं उठता ।”

पूर्ण समर्पण ही सच्ची भक्ति है

एक बार परमहंसदेव अपने शिष्यों को कुछ उपदेश दे रहे थे । वह शिष्यों को अवसर की महत्ता बता रहे थे । वह बोल रहे थे कि मनुष्य अक्सर अपने जीवन में आये सुअवसरों को ज्ञान और साहस की कमी के कारण खो देता है । अज्ञान के कारण मनुष्य या तो अवसर को समझ ही नहीं पाता और कोई समझ भी जाये तो उसका लाभ उठाने के अनुरूप उसमें साहस नहीं होता ।

जब उन्होंने देखा कि बात शिष्यों को समझ नहीं आ रही है तो उन्होंने सामने ही बैठे नरेंद्र से कहा – “ नरेंद्र ! मान ले अगर तू एक मक्खी है और तेरे सामने अमृत का एक कटोरा भरा पड़ा है । अब बता तू उसमें कूद पड़ेगा या किनारे बैठकर उसे छूने की कोशिश करेंगा ?”

नरेंद्र बोला – “ किनारे बैठकर छूने की कोशिश करूँगा । बीच में कूद पड़ा तो प्राण संकट में आ सकते है । इसलिए बुद्धिमानी इसी में है कि किनारे बैठकर खाने की कोशिश की जाये ।” पास में बैठे दुसरे शिष्यों ने विवेकानंद के तर्क की खूब सराहना की ।

किन्तु परमहंसजी हँसे और बोले – “ मुर्ख ! जिस अमृत को पीकर तू अमर होने की कल्पना करता है, उसमें भी डूबने से डरता है । जब अमृत में डूबने का सुअवसर मिल रहा है तो फिर मृत्यु का भय क्यों ?”

तब शिष्यों को बात समझ में आई । चाहे आध्यात्मिक उन्नति हो या भौतिक, जब तक पूर्ण समर्पण नहीं होता, सफलता संदिग्ध है ।

मन्त्र की महिमा

एक बार परमहंसजी से एक जिज्ञासु ने पूछा – “ क्या मन्त्र जप सबको समान लाभ देते है ?”

उन्होंने कहा – “ नहीं !” तो जिज्ञासु ने पूछा – “ क्यों ?”

परमहंसजी के समझाने के तरीके भी अनोखे है । उन्होंने एक उस जिज्ञासु को एक कथा सुनाई ।

एक था राजा । उसका मंत्री प्रतिदिन जप करता था । एकदिन उस राजा ने भी मंत्री से यही प्रश्न पूछा कि “क्या मन्त्र जप सबको समान लाभदायक होता है ?” तब मंत्री ने कहा – “ जी नहीं महाराज ! सबको समान लाभदायक नहीं होता ।” तब राजा ने भी ‘क्यों’ करके कारण पूछा । कुछ दिन तो मंत्री टालता रहा लेकिन जब राजा रोज आग्रह करने लगा तो मंत्री ने एक दिन इसका समाधान करने का निश्चय किया ।

वह राजा को एकांत में ले गया और एक अजनबी बालक को बुला भेजा । मंत्री ने बच्चे से कहा – “ बेटा ! जाओ और इस राजा के गाल पर दो चार झापड़ जड़ दो तो, रोज – रोज मुझसे प्रश्न पूछता है ।” उस बालक ने मंत्री की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया और चुपचाप खड़ा रहा । तभी राजा को गुस्सा आया । वहाँ कोई सेवक और सैनिक तो था नहीं अतः राजा ने उसी बच्चे को आदेश दे डाला – “ बालक ! जा और दो चार चांटे इस मंत्री को ही लगा । ताकि इसे भी महाराज का अपमान करने का अहसास हो जाये ।” बच्चे ने तुरंत महाराज के आदेश का पालन किया और तड़ातड़ मंत्री के झापड़ लगा दिए ।

मंत्री शांतचित खड़ा रहा और बोला – “ महाराज ! मन्त्र शक्ति भी इस बालक की तरह ही है, जो केवल अधिकारी व्यक्ति के आदेश का पालन करती है । जिसे इतना विवेक होता है कि किसे लाभ देना चाहिए और किसे नहीं । किस पर कृपा बरसानी चाहिए और किस पर नहीं ।”

सन्दर्भ – महापुरुषों के अविस्मरणीय जीवन प्रसंग, लेखक – पंडित श्री राम शर्मा आचार्य

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