शांतनु और गंगा

राजा महाभिष को ब्रह्माजी का शाप | राजा शान्तनु के जन्म की कथा

प्राचीन समय की बात है । इक्ष्वाकुवंश में महाभिष नामक राजा प्रसिद्ध था । राजा महाभिष बड़ा ही सत्यानुरागी और धर्मपरायण था । उसने एक सहस्त्र अश्वमेध और सौ राजसूय यज्ञ करके देवराज इन्द्र को प्रसन्न कर लिया । इस प्रकार यज्ञों के पूण्य फल के रूप में राजा को स्वर्गलोक की प्राप्ति हो गई ।

एक बार देवताओं की सभा में राजा महाभिष भी ब्रह्माजी के समीप बैठे हुए थे । तभी नदियों में श्रेष्ठ गंगा का आगमन हुआ । तभी संयोग से वायु के झोंके से उनके चमचमाते सुन्दर वस्त्र सहसा उड़कर ऊपर उठ गये । यह देख तत्क्षण सभी देवताओं ने अपनी नजरे नीचे झुका ली । किन्तु राजा महाभिष एकटक परम सुन्दरीरूप गंगा को निहारते रह गये ।

यह देख रोष में आकर भगवान ब्रह्मा ने महाभिष को शाप देते हुए कहा – “ हे दुर्मति महाभिष ! तुम्हारी इस कुदृष्टि के कारण तुम्हें मनुष्यलोक में जन्म लेना होगा और तत्पश्चात तुम्हें पुण्यलोक मिलेगा । जिस गंगाने तुम्हारे चित्त को चुराया है, वही मनुष्यलोक में तुम्हारे विपरीत आचरण करेगी । जब तुम्हें उसपर क्रोध आएगा और वह तुम्हे छोड़कर चली जाएगी, तभी तुम इस शाप से मुक्त हो पाओगे ।”

तब राजा महाभिष ने अनेकों तपस्वी राजाओं का चिंतन किया और उनमें से केवल महातेजस्वी राजा प्रतीप को अपना पिता बनने के योग्य चुना । इधर सर्वांग सुंदरी गंगा राजा महाभिष के लिए दुखी होकर मन ही मन उनका चिंतन करती हुई, वहाँ से चली गई ।

महानदी गंगा जब मार्ग से जा रही थी । तभी उन्होंने स्वर्ग से गिरते हुए वसुओं को देखा । वे मोह से आच्छादित व मलिन दिखाई दे रहे थे । उन्हें इस रूप में देखकर गंगा ने पूछा – “हे वसुओं ! तुम्हारा दिव्य रूप नष्ट कैसे हो गया ? सब कुशल मंगल तो है ना ?”

तब वसुओं ने कहा – “ हे महानदी माँ गंगे ! हमारी यह हालत महर्षि वशिष्ठ के शाप से हुई है । एक समय की बात है । जब महर्षि वशिष्ठ संध्या – उपासना के लिए गये हुए थे । उस वक्त मोहवश हमने उनकी आज्ञा के बिना उनकी प्रिय गाय का अपहरण कर लिया । जिससे कुपित होकर उन्होंने हमें शाप दिया कि ‘ देवता होकर तुमने चोरी जैसा दुष्कर्म किया । इसके लिए तुम सब लोगों को मनुष्यलोक में जन्म लेना होगा ।’ ब्रह्मवादी महर्षि का शाप कभी असत्य नहीं हो सकता । इसलिए हमारी प्रार्थना है कि आप मनुष्यलोक में मनुष्य की पत्नी होकर हमें जन्म दो । जिससे हमें मानुषी स्त्रियों के उदर में प्रविष्ट न होना पड़े ।” वसुओं के द्वारा ऐसी प्रार्थना सुनकर गंगा ने तथास्तु कहा ।

फिर नदियों में श्रेष्ठ गंगा ने पूछा – “ किन्तु वसुओं ! मनुष्यलोक में ऐसा कौन है जो तुम्हारा पिता हो सके ?”

तब वसु बोले – “ हे देवी माँ ! परम तपस्वी राजा प्रतीप के पुत्र सुविख्यात शान्तनु बड़े ही भले पुरुष होंगे । वे ही हमारे महान पिता होंगे । किन्तु हे गंगे ! जब हम तुम्हारे गर्भ से जन्म ले तब आप हमें जन्म लेते ही अपने जल में बहा देना । जिससे यथाशीघ्र हमें मृत्युलोक से छुटकारा मिल सके ।”

गंगा ने कहा – “ जैसा तुमने कहा, मैं वैसा ही प्रयत्न करूंगी । जिससे तुम्हारा शुभ हो ।” इतना वार्तालाप करके वसुगण और गंगा अपने – अपने रास्ते चल दिए ।

गंगा और राजा प्रतीप का मिलन

इस घटना के कुछ वर्षो बाद एक बार महाराजा प्रतीप हरिद्वार में गंगा के तट पर आसन लगाकर कई वर्षो तक जप करते रहे । राजा प्रतीप की तेजस्विता से आकर्षित होकर गंगा एक सुन्दर युवती का रूप धारण करके जल से बाहर निकली । श्रेष्ठ गुणों से युक्त गंगा राजर्षि प्रतीप को रिझाने के मंतव्य से उनकी शाल के समान दिखने वाली दाहिनी जांघ पर जा बैठी ।

नारी के कोमल स्पर्श से सहसा राजर्षि प्रतीप की आंखे खुल गई । अपनी जंघा पर बैठी उस सुकोमल युवती से राजर्षि ने पूछा – “ हे भद्रे ! तुम किस प्रयोजन से मेरे पास आई हो और तुम क्या चाहती हो ?”

युवती बोली – “ हे देव ! दिन – प्रतिदिन आपकी तपस्या से बढ़ने वाले तेज और सुन्दरता के कारण मेरा आपके प्रति अनुराग बढ़ता जा रहा है । अतः हे राजन ! मैं आपको ही चाहती हूँ । क्योंकि काम से मोहित होकर आई स्त्री को त्यागना साधू पुरुषों के लिए निंदनीय माना गया है । अतः आप मुझे स्वीकार करें । मेरी काम पिपासा को शांत करें ।”

राजर्षि प्रतीप बोले – “ हे देवी ! मेरा व्रत है कि मैं काम से मोहित होकर आई अपने वर्ण से भिन्न पराई स्त्री से समागम नहीं कर सकता । अतः मुझे क्षमा करें और मुझे अपने धर्म का पालन करने दे ।”

युवती बोली – “ हे राजन ! मैं न तो अशुभ हूँ न ही अमंगल करने वाली । मैं निश्चय ही आपके समागम के योग्य हूँ । मैं एक दिव्य कन्या हूँ जो आपके प्रति आकर्षित होकर आई हूँ । अतः निसंकोच मुझे अंगीकार करें ।”

राजर्षि प्रतीप बोले – “ हे सुंदरी ! तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम मेरी दाहिनी जांघ पर बैठी हो । जो कि पुत्र, पुत्री तथा पुत्रवधू का आसन है । पुरुष की बायीं जांघ कामिनी के उपभोग के लिए होती है, जिसे तुमने नहीं चुना । अतः हे देवी ! अब तुम्हें भोगना मेरे लिए धर्म के विरुद्ध होगा । अतः मैं तुम्हारे प्रति कोई कामना नहीं रखता । यदि तुम चाहो तो मेरी पुत्रवधू हो सकती हो । मैं अपने पुत्र के लिए तुम्हे स्वीकार करता हूँ ।”

युवती बोली – “ जैसी आपकी इच्छा राजन ! आपके द्वारा न सही, आपके पुत्र के साथ संयोग करके मुझे भरतवंश में आने का सौभाग्य प्राप्त होगा । सम्पूर्ण धरा पर जितने राजा है, उनमें आपलोग सर्वश्रेष्ठ है । इसलिए मेरी आपके प्रति विशेष अनुरक्ति है । शत वर्षो में भी मैं आपके गुणों का बखान नहीं कर सकती । हे धर्मज्ञ नरेश ! मैं आपके पुत्र से विवाह करूंगी लेकिन मेरी यह शर्त है कि वह मुझसे कभी कोई प्रश्न न करें । इस शर्त का पालन करने पर मैं आपके पुत्र को सभी प्रकार से प्रसन्न रखूंगी ” इतना कहकर गंगा अंतर्ध्यान हो गई ।

शान्तनु और गंगा का मिलन और विवाह

समय बीता और राजर्षि प्रतीप और उनकी पत्नी पुत्र की प्राप्ति के लिए तपस्या करने लगे । यथासमय महारानी ने एक तेजस्वी बालक को जन्म दिया । शांत पिता की संतान होने के कारण उसका नाम शान्तनु रखा गया । यथासमय शान्तनु युवावस्था में पहुँच गये ।

तब एक दिन राजा प्रतीप को गंगा को दिया गया वचन याद आया । प्रतीप ने अपने पुत्र से कहा – “ शान्तनु ! तुम्हारे जन्म से पूर्व मेरे पास एक दिव्य स्त्री आई थी । उसकी इच्छा है कि तुम उसका वरण करो । अतः हे पुत्र ! यदि वह सुंदरी कभी एकांत में तुम्हारे पास आवे और कामेच्छा प्रकट करे तो बिना कुछ पूछे तुम उसका वरण करना । ऐसी मेरी आज्ञा है ।”

इसके बाद राजा प्रतीप राज्यभार अपने पुत्र शान्तनु को सौंपकर वन में निकल गये ।

कालांतर में एक दिन शान्तनु हिंसक पशुओं का शिकार करते हुयें गंगा के तट पर पहुँच गये । वहाँ उन्होंने एक परम सुंदर स्त्री को देखा । उस युवती की दिव्यता को देख शान्तनु को पिता की वह बाद याद हो आई । इधर गंगा भी शान्तनु को देखकर मुग्ध हो गई । उसकी सुन्दरता को देखकर राजा शान्तनु उसपर मोहित हो गये और बोले – “ हे परम सुंदरी ! मैं तुम्हे अपनी पत्नी बनाना चाहता हूँ ।”

गंगा को वसुओं को मुक्त करने की बात याद आ गई । अतः उसने राजा शान्तनु को शर्त याद दिलाई कि वह कुछ भी करे, राजा उससे कोई प्रश्न नहीं करेगा । यदि राजा ने कोई प्रश्न किया तो वह उसे छोड़कर चली जाएगी । अपने पिता के वचन के अनुसार शान्तनु ने उसकी शर्त स्वीकार कर ली ।

अपने राज्य लाकर राजा उस सुंदरी का उपभोग करने लगा । उनके संयोग से आठ पुत्रों का जन्म हुआ । लेकिन प्रत्येक पुत्र को रानी जन्मते ही नदी में फेंक आती । राजा शान्तनु रानी के छोड़कर चले जाने के डर से उससे कुछ नहीं पूछते । लेकिन आठवे पुत्र के जन्म के समय राजा ने व्यथित होकर महारानी से पूछ ही लिया । तब शर्त के अनुसार उस पुत्र को जिन्दा रखकर रानी राजा शान्तनु को छोड़कर चली गई ।

यह राजा शान्तनु वही राजा महाभिष है, जिन्हें ब्रह्माजी ने शाप दिया था कि “ हे दुर्मति महाभिष ! तुम्हारी इस कुदृष्टि के कारण तुम्हें मनुष्य लोक में जन्म लेना होगा और तत्पश्चात तुम्हें पुण्यलोक मिलेगा । जिस गंगाने तुम्हारे चित्त को चुराया है, वही मनुष्यलोक में तुम्हारे विपरीत आचरण करेगी । जब तुम्हें उसपर क्रोध आएगा और वह तुम्हे छोड़कर चली जाएगी, तभी तुम इस शाप से मुक्त हो पाओगे ।”

ब्रह्माजी का शाप सत्य हुआ और गंगा राजा शान्तनु को छोड़कर चली गई । इसके बाद राजा शान्तनु उदास रहने लगे ।

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