वास्तु में दिशाए

वास्तु शास्त्र का महत्त्व | पिरामिड पॉवर – उर्जा का प्रवाह

यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड विभिन्न प्रकार की उर्जाओं से संचालित है । सभी ग्रह – नक्षत्र उर्जा के कुछ निश्चित घेरों में चक्कर काटकर एक दुसरे के स्थायित्व को बनाये रखते है । इसे यदि आप छोटे स्तर पर देखना चाहे तो नवीं – दसवीं की विज्ञान की पुस्तक खोलकर देख सकते है । उसमें स्पष्ट रूप से परमाणु के स्थायित्व का कारण समझाया गया है ।

जिस तरह ब्रह्माण्ड में स्थित किसी भी ग्रह को दुसरे सभी ग्रह अपनी उर्जा से प्रभावित करते है । उसी तरह मनुष्य को भी उसके आस – पास का वातावरण व मकान अर्थात जिस भूखण्ड में वह रहता है, प्रभावित करता है ।

प्राचीन समय के विद्वान ऋषि – मुनि इस बात से भली प्रकार परिचित थे । इसलिए उन्होंने भवन निर्माण को वास्तुविज्ञान का नाम दिया तथा इसे चार उपवेदों में स्थापत्य उपवेद नाम से शामिल किया गया ।

स्थापत्यकला के बड़े ही अनोखे और रोचक अजूबे भारत के मंदिरों और ऐतिहासिक भवनों के रूप में देखे जा सकते है । उनकी कारीगरी, सुन्दरता और उनमें प्रवेश करने पर अपरिमित शांति का अनुभव ही स्थापत्यकला के महत्त्व को सिद्ध करता है ।

उन भवनों का निर्माण इस तरह किया गया है कि उनमें सकारात्क उर्जा अधिक से अधिक मात्रा में संचित हो सके । जिससे हमें सुख – शांति, आरोग्य और आनंद का अनुभव हो । वास्तु के आधार पर निर्मित भवनों में कुछ समय व्यतीत करने पर मन स्वतः उनकी ओर आकर्षित होने लगता है । यह उसी सकारात्मक उर्जा का प्रभाव होता है, जो हमें बरबस आकर्षित करता है ।

माया सभ्यता और मिश्र के लोगों ने पिरामिडों का निर्माण इसी बात को ध्यान में रखते हुए किया था । उनका मानना है कि पिरामिड जैसी सम आकृति में फलों और मनुष्यों को लम्बे समय तक स्वस्थ और सुरक्षित रखा जा सकता है । अर्थात इससे यह सिद्ध होता है कि मनुष्य या वस्तुओं पर उस आकृति का प्रभाव पड़ता है, जिसमें वह रहता है । अतः कहा जा सकता है कि वास्तुशास्त्र एक विज्ञान सम्मत खोज है ।

पिरामिड के माध्यम से इस उर्जा के नियोजन को पिरामिड शक्ति (Pramid Power) नाम से जाना जाता है । इस बारे में अधिक जानकारी के लिए आप गूगल सर्च कर सकते हो ।

भारत में वास्तुकला को एक धार्मिक कार्य माना जाता है । इसी के निमित्त भवन के निर्माण से लेकर गृह प्रवेश तक उसमें सभी प्रकार से वास्तु का ध्यान रखा जाता है । इसके पीछे कोई अंधविश्वास नहीं बल्कि ब्रह्मांडीय उर्जा को व्यवस्थित रूप से भजन में संचालित करने का विज्ञान है ।

जिस तरह शरीर में वात – पित्त – कफ़ का संतुलन शरीर के स्वस्थ रहने का संकेत है । उसी तरह भवन में उर्जा का सुनियोजित प्रवाह ही भवन के स्वस्थ रहने का संकेत है । अगर उर्जा का प्रभाव बिगड़ता है अर्थात भवन का निर्माण वास्तु के अनुसार नहीं हुआ है तो गृहस्वामी तथा उसने रहने वालों लोगों को पारिवारिक, मानसिक, शारीरिक, सामाजिक और आर्थिक विभिन्न प्रकार के कष्ट होने की संभावना है ।

पूर्व की ओर मुख करके लेटे हुए वास्तु देवता या वास्तु पुरुष की पूजा करने के पीछे यही विधान है कि वास्तु के अनुसार भवन का निर्माण हो, जिससे उर्जा का प्रवाह उचित रूप से हो और परिजनों को भवन से सम्बंधित किसी प्रकार की कोई समस्या न आये ।

वास्तु शब्द का अर्थ – वस् + अस्तु अर्थात जहाँ हमारा वास हो होता है । यह वस् धातु से निकला है, जिसका अर्थ होता है – निवास, आवास, रहने का स्थान ।

वास्तुशास्त्र का मूल उद्देश्य घर में सुख – शांति की स्थापना करना है । जिसके लिए कुछ विशेष विधि नियमों को ध्यान में रखते हुए गृह निर्माण किया जाता है । वास्तु में मूल रूप से यह देखा जाता है कि कोनसा स्थान और वस्तु कहाँ होंगे । जैसे रसोई किस दिशा में होंगी ?, पूजन कक्ष कहाँ होगा ?, मुख्य द्वार किस दिशा में होगा ?, शयन कक्ष कहाँ होगा ?, शौचालय, औषधालय, कार्यालय आदि कहाँ होंगे ?
वास्तुशास्त्र में दिशाओं में बड़ा महत्त्व है । दिशाएं मुख्य रूप से चार होती है – पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण । किन्तु वास्तुशास्त्र में दस दिशाओं का उल्लेख है । इन चार दिशाओं के अलावा चार विदिशायें भी होती है जो इन दिशाओं के मध्य कोण में विद्यमान होती है – ईशान, आग्नेय, नैऋत्य और वायव्य । आकाश और पाताल को भी यहाँ दिशाओं में शामिल किया गया है । दिशाओं के सही निर्धारण के लिए चुम्बकीय कम्पास के बजाय सूर्य को आधार मानना चाहिए । चुम्बकीय कम्पास चुम्बकीय क्षेत्र से प्रभावित हो सकता है और दिशाभ्रम होने की संभावना होती है ।

अगले लेख में वास्तुशास्त्र के आधार पर अलग – अलग दिशाओं में होने वाले प्रभावों के बारे में चर्चा की जाएगी ।
आजका यह लेख आपको कैसा लगा ? कमेंट में अपने सुझाव दे, उपयोगी लगे तो अपने दोस्तों को शेयर करें ।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *