ज्ञानयोग और कर्मयोग का संयोग | वैराग्य की कहानी

आजकल अधिकांशतः देखने में आता है कि हर शहर, गाँव, गली और मुहल्ले में भागवत कथा और रामकथा का बोलबाला है । मैं नहीं कहता कि कथा करना गलत बात है, लेकिन ऐसी कथा भी किस काम की, जिससे लोगों के व्यक्तित्व में कोई परिवर्तन न हो ।
 
मात्र उपदेश सुनने से जन्म – जन्मान्तरों तक भी कोई लाभ नहीं होने वाला, यदि उसका अनुकरण न किया जाये । इसी सन्दर्भ में एक दृष्टान्त है । जो इस प्रकार है –
 
एक बार की बात है एक महात्मा जी एक गाँव में सैकड़ो श्रोतागणों के मध्य ज्ञान – भक्ति और वैराग्य का उपदेश दे रहे थे । देवयोग से उस दिन राजकुमार दौरे पर था । राजकुमार ने भेष तो पहले से ही बदल रखा था अतः किसी के पहचान जाने का तो सवाल ही नहीं उठता । उसने भी अपना घोड़ा वही खड़ा किया और पास ही खड़ा होकर महात्माजी का उपदेश सुनने लगा ।
 
राजकुमार पहली बार किसी महात्मा के उपदेश सुन रहा था अतः उसने एक – एक बात को बड़े ध्यान से हृदयंगम किया । उपदेश सुनते – सुनते ह्रदय शुद्ध हो गया और तीव्र वैराग्य का प्रकटीकरण हुआ । उसने उसी समय अपना सबकुछ छोड़ने का निश्चय किया और अपना घोड़ा वही छोड़कर जंगल में तपश्चर्या के लिए निकल गया । राजप्रासाद के भोग विलास उसे तनिक भी विचलित न कर सके । कई वर्षो के लम्बे योगाभ्यास और तपश्चर्या के बाद उसे आत्मज्ञान की प्राप्त हुई ।
 
फिर एक दिन उसे विचार आया कि जिन महात्मा के उपदेश से मुझे आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई, उनका धन्यवाद करना चाहिए । अतः वह उन महात्मा के पास उनके आश्रम गया । उसने वहाँ देखा कि महात्मा ! पूर्ववत उपदेश दे रहे थे और अधिकांश वे ही श्रोता बैठे थे जिन्हें उसने कई वर्ष पूर्व देखा था , उनके उपदेश सुन रहे है ।
 
इतने वर्ष वन में अकेले तपस्या करने से राजकुमार भी अब किसी महात्मा से कम नहीं था । लम्बी – लम्बी जटाओ के कारण वह स्वयं भी साधू दिखाई दे रहा था । वह उन श्रोताओं के बीच गया और उनके सिरों को पकड़कर हिला – हिला कर देखने लगा ।
 
यह देख महात्माजी आश्चर्य से बोले – “अरे महात्माजी ! आप क्या कर रहे है ? इनके सिर क्यों हिला रहे है ?”
 
यह सुनकर राजकुमार बोला – “ महात्मन ! मैं देख रहा हूँ कि ये श्रोतागण मिट्टी या पाषाण की मूर्तियाँ है या जीते – जागते मनुष्य ! पिछले कई वर्षों से यह आपके यहाँ नित्य उपदेश सुनते आ रहे है लेकिन इनके जीवन में कोई विशेष परिवर्तन दृष्टिगोचर नहीं होता । मैंने तो आपका उपदेश एक दिन कुछ घड़ी ही सुना था और उसी में कृत्य – कृत्य हो गया ।”
 
तब महात्मा ने पूछा – “ तुम कौन हो और तुम्हारा परिचय क्या है ?”
 
तब राजकुमार ने अपनी पूरी कहानी बताई । इसके बाद महात्मा बोले – “वत्स ! दुनिया में कई प्रकार के मनुष्य होते है । जिनमें से एक तुम हो और एक ये श्रोतागण है । तुमने मेरी एक प्रेरणा को, एक शिक्षा को, एक उमंग को अपने ह्रदय में वर्षो से जिन्दा रखा, इसलिए उसने तुम्हे पूरी तरह बदल दिया । लेकिन इन लोगों पर मेरे उपदेश का असर कुछ क्षण, कुछ घड़ी और किसी पर कुछ दिन ही रहता है । इसलिए इनके जीवन में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ ।”
 
थोड़ा रूककर महात्मा फिर बोले – “ जिस तरह बच्चा माँ – बाप की डांट – फटकार और मार बार – बार सहता है वो ढीट हो जाता है । उसपर उस मार फटकार का कोई खास असर नहीं होता । उसी तरह जो प्रतिदिन उपदेश तो सुनता है लेकिन उनको आचरण में नहीं लाता, उसपर भी उनका कोई खास असर नहीं होता । उसके लिए वह ज्ञान दुसरो को सुनाने और मनोरंजन के लिए होता है । इसलिए बुद्धिमान मनुष्य बहुत अधिक ज्ञान जुटाने के बजाय थोड़े ज्ञान का आचरण श्रेयस्कर समझते है ।”
 
इतना सुनकर राजकुमार ने महात्मा जी को प्रणाम किया और वन को चल दिया ।

दोस्तों ! यदि इस कहानी से हम ले सके तो इसमें बहुत सारी शिक्षाएं छुपी पड़ी है, लेकिन एक शिक्षा बड़ी अहम् है जो परमहंस योगानन्द जी का एक वाक्यांश है – “Read less meditate more think all the time God”

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