गणिका वासवदत्ता की कथा

मेरे आने का सही समय

कभी – कभी इतिहास में कुछ ऐसा जानने को मिलता है जो अद्वितीय होता है । ऐसी ही एक कहानी वाराणसी के एक महान तपस्वी बोद्ध भिक्षु की है जो बोद्ध धर्मं के धर्माचार्य उपगुप्त के नाम से प्रसिद्ध है ।
एक बार की बात है भिक्षु उपगुप्त अपने विहार में सो रहे थे । अकस्मात उन्हें घुंघरू के बजने का आभास हुआ । गौर करने पर पता चला कि नूपुर की छनछनाती ध्वनी उनकी तरफ बढ़ती चली आ रही थी । थोड़ी ही देर में श्रावस्ती की अत्यंत सुन्दर नगरवधू वासवदत्ता उनके समक्ष उपस्थित थी । वासवदत्ता के सौन्दर्य से सम्पूर्ण श्रावस्ती प्रभावित किन्तु वह स्वयं भिक्षु उपगुप्त के यौवन और प्रतिभा से प्रभावित होकर उनपर आसक्त थी । वासवदत्ता को इस तरह अकस्मात अपने सामने देख उपगुप्त थोड़ा अचरज हुआ । उन्होंने पूछते हुए कहा – “ नगर सुंदरी का आज बोद्ध विहार में कैसे आना हुआ ?”

वासवदत्ता ने विनम्रता से कहा – “ हे नाथ ! मेरी आपसे विनती है कि आप मेरे भवन पधारकर मुझे कृतार्थ करें । मैं चाहती हूँ कि आप इन कंदराओं में कुंठित न हो बल्कि मेरे साथ दुर्लभ भवनों का आनंद ले । हे नाथ ! न जाने क्यों मैं आपके सौन्दर्य दीप्ती पर पतंगे की तरह मुग्ध हूँ, ” प्रेमाश्रु पोछते हुए “ मेरे प्रेम का सम्मान कर मुझे पवित्र करें ।”

उपगुप्त ने बड़े ही विनम्र भाव से कहा – “ हे देवी ! जिस ज्योति पर आप मुग्ध हो रही है, वह ज्योति आपमें भी विद्यमान है । रही बात मेरे आने की तो जब मेरे आने का सही समय आयेगा, तब मैं अवश्य आऊंगा । यह मेरा वचन है !”

उपगुप्त के उत्तर पर वासवदत्ता ने प्रतिप्रश्न करना उचित न समझा और जैसे आई थी वैसे ही चली गई । दिन पर दिन बीतते गये, जब भी मौका मिलता, वासवदत्ता उपगुप्त से वही बात दोहराती और उपगुप्त भी वही पंक्ति दोहराकर चल देते । इस तरह काफी समय बीत गया ।

एक दिन भिक्षु उपगुप्त एक नगर से दुसरे नगर जा रहे थे । पथ के किनारे पर उन्हें एक बुढ़िया बेसुध पड़ी दिखाई दी । उसका पूरा शरीर छूत की बीमारी से पीड़ित था । भिक्षु उपगुप्त ने अपने कमण्डल से जल हाथ में लिया और बुढ़िया के मुख पर छिड़का । शीतल जल के छीटे पड़ने से बुढ़िया को होश आया और वह बोली – “ हे करुणानिधि ! आप कौन है, जो मुझ अछूता की सेवा कर रहे है । नगर वासियों ने तो मुझे छूत के भय से नगर की सीमा से बाहर फेंक दिया । लेकिन आप अब भी मेरी सुश्रुषा में लगे है कौन है आप ? ” भिक्षु उपगुप्त ने उसे सहारा देते हुए एक पेड़ की छाव में बिठाया । वासवदत्ता की यह दशा देख उपगुप्त की आँखे करुणा से छलछला उठी । भिक्षु उपगुप्त धीरे से बोला – “ हे वासवदत्ते ! मैं वही उपगुप्त हूँ जिसके प्रेम में तुम आकंठ डूबी हुई थी । मैं अपने वचन के अनुसार लो तुमसे मिलने आ गया ।”

वासवदत्ता – “ हे नाथ ! अब क्या प्रयोजन मिलने का, ना मैं आपके काम आ सकती हूँ न मेरा शरीर ही सुन्दर है !” इतना कह वह रोने लगी ।

आत्मभाव से युक्त भिक्षु उपगुप्त का मुख तेज से दीप्तिमान हो उठा । वह मुस्कुराते हुए बोला – “ हे वासवदत्ते ! यही मेरे आने का सही समय है । न तो मुझे तुम्हारे शरीर से कोई प्रयोजन है न ही तुम्हारी सुन्दरता से प्रेम है लेकिन हे वासवदत्ते ! मुझे तुमसे उतना ही प्रेम है जितना कि मुझे स्वयं से है । शरीर के बन्धनों को छोड़ दो और मेरे साथ हो जाओ ।”

उपगुप्त की ज्ञान ज्योति में वासवदत्ता का सांसारिक मोह क्षण भर में समाप्त हो गया । वह आत्मज्ञान से जगमगा उठी । उसे मोक्ष का मार्ग मिल गया ।

दोस्तों ! इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि हमें शरीर के सौन्दर्य से अधिक आत्मा के सौन्दर्य पर ध्यान देना चाहिए । सद्गुण, सद्विचार और सद्कर्मों के समन्वय से ही आत्मा को सुन्दर बनाया जा सकता है ।

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