धर्मं का मर्म एक हिंदी कहानी

हमसे यदि कोई पूछे कि “आपका धर्म क्या है ?” तो हम बहुत आसानी से उत्तर दे देते है, जैसे हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई । किन्तु यदि हमसें पूछ लिया जाये कि “धर्मं क्या है ?” तो अधिकांश लोगों के मुख से कोई जवाब नहीं निकलता । क्यों ? क्योंकि अब तक हमने अब तक धर्म को केवल एक जाति समझ रखा है । इसलिए जब हमें अपनी जात पूछी जाती है तो हम झट से उत्तर दे देते है । किन्तु यह कभी जानने की कोशिश नहीं करते कि असल में धर्म क्या है ? यदि आप वास्तव में जानना चाहते है, तो आपके सुविधा के लिए यह दो कहानियाँ प्रस्तुत है । पढ़े और अपने धर्म के विचारों से हमें अवगत करावे ।

एक समय की बात है । एक दिन संत अपने कुछ शिष्यों के साथ एक नगर से होकर जा रहे थे । वह नगर आस – पास के सभी नगरों का व्यापारिक केंद्र होने के कारण धन – संपत्ति से परिपूर्ण था । उस नगर में भगवान शिव का एक भव्य मंदिर था, जिसे देखने की इच्छा से संत और उनके शिष्य मंदिर जा पहुंचे । मंदिर पहुँच कर उन्होंने देखा कि मंदिर के बाहर कुछ लोग इकट्ठे होकर मंदिर को और अधिक सुन्दर बनाने के लिए चंदा इकट्ठा कर रहे है । यह देख संत को हंसी आ गई ।

जब उन्होंने मंदिर के अन्दर प्रवेश किया तो देखा कि द्वार पर एक ब्राह्मण दान पात्र लगाकर शिवजी का पाठ कर रहा है साथ ही दान पात्र पर भी बराबर नजर बनाये हुए है । यह देखकर फिर संत को हंसी आ गई । जब संत अपने शिष्यों के साथ गर्भ गृह में पहुंचे तो देखा कि शिवजी की मूर्ति की बगल में एक पुजारी बैठा है, जो वहाँ चढ़ाये जाने वाले चढ़ावे को एकत्रित कर रहा था । जब संत मंदिर से बाहर निकले तो देखा कि उस पुजारी ने वह सारा चढ़ावा एक दुकान पर बेच दिया और पैसा अपनी जेब में रखकर चल दिया । यह देख संत को फिर हंसी आ गई ।

अब संत नगर के बाजार की ओर चल दिए । थोड़ी दूर चलने के बाद संत ने देखा कि कोई बहुत ऊँची आवाज में भाषण दे रहा है । जब और नजदीक गए तो पता चला कि कोई श्री श्री १००८ संत श्रीमद्भागवत का कथावाचन कर रहे है । जब उनके कुछ अनुनायियों से पूछा गया तो पता चला कि महाराज एक दिन कथावाचन का २ लाख रूपये लेते है । यह सुनकर संत को फिर हंसी आ गई ।

संत वहाँ से आगे बढ़कर अपने आश्रम की ओर चल दिए । रास्ते में उन्होंने देखा कि एक वैद्यजी एक कुत्ते की चिकित्सा कर रहे थे । संत उन वैद्यजी के घर की और चल दिए । संत ने पूछा – वैद्यजी ! क्या यह आपका पालतू कुत्ता है ?

वैद्यजी बोले – “ नहीं महात्मन् ! कल रात को इसे किसी ने पत्थर मार दिया इसलिए बहुत चिल्ला रहा था । मुझे घाव भरने की ओषधियों का ज्ञान है अतः मैं इसे अपने घर ले आया ।

संत बोले – “किन्तु यह तो आपको कोई धन नहीं देगा, फिर आप इसकी चिकित्सा क्यों कर रहे है ?

वैद्यजी बोले – “ महात्मन् ! मैं एक वैद्य हूँ और अपनी विद्या से मैं किसी का दुःख दूर कर सकू, यही मेरा धर्मं है । मुझे अपने धर्म के पालन के लिए धन की आवश्यकता नहीं ।”

यह सुनकर संत की आँखों में आँसू आ गये । अब संत अपने शिष्यों के साथ अपने आश्रम की ओर चल दिए । जब आश्रम पहुंचे तो एक शिष्य अपने आचार्य के लिए जल लाया और उत्सुकता की दृष्टि से संत की और देखने लगा । संत अपने शिष्य की मनोदशा को समझ गये, उन्होंने कहा – बोलो कुमार ! किस बारे में जानना चाहते हो ?

शिष्य – आचार्य ! मुझे आपके चार बार हंसने और एक बार रोने का रहस्य समझा दीजिये ।

संत बोले – कुमार ! पहले चार स्थानों पर मैं यह सोचकर हँसा की लोग धर्म से कितने अनजान है ! जिन लोगों को मंदिर में बैठकर ज्ञान चर्चा करना चाहिए, वह उसे और भव्य बनाने के लिए धन जुटाने के लिए लगे है । जिस ब्राह्मण का धर्म ब्रह्म की उपासना है, वह धन के लोभ में शिवजी के पाठ करने का ढोंग कर रहा है । जिस पुजारी का धर्म पूजा के प्रति समर्पित होना चाहिए वह शिवजी के चढ़ावे को बेचकर अपनी जेब भर रहा है । जिन श्री श्री १००८ महाराज को ज्ञान दान मुफ्त में करना चाहिए वह उस श्रीमद्भागवत गीता के ज्ञान को लाखों रुपयों में बेच रहे है । कुमार ! यह सब लोग धर्म के नाम पर अधर्म द्वारा ठगे जा रहे है । किन्तु मुझे उस वैद्य की निस्वार्थ सेवा ने रुला दिया । जिसने अपने वैद्य के धर्म के पालन के लिए धन की भी परवाह नहीं की । असल में वही सच्चा धर्मात्मा है ।

कुमार को अब धर्म का रहस्य समझ में आ चूका था । अब वह समझ चूका था कि –

असली धर्म क्रियाओं में नहीं संवेदनाओं में निवास करता है ।

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