दान का आनंद – राजा रन्तिदेव की कथा

कुछ लोगों में करुणा इस तरह समाई होती है कि उन्हें सभी प्राणियों में करुणानिधि दिखाई देते है । ऐसे ही एक महान राजा ने भारत वर्ष में जन्म लेकर इस धरा को धन्य किया है । राजा संकृति के पुत्र रन्तिदेव । राजा रन्तिदेव बड़े ही प्रतापी, साहसी, न्यायप्रिय, धर्मं परायण और दानी थे । दुसरो का दुःख दर्द देखकर स्वयं दुखी हो उठते थे । आये दिन राजा रन्तिदेव गरीबों, ब्राह्मणों और याचको को दान दिया करते थे । जो भी उनके द्वारे आता, कभी खाली नहीं जाता था ।
 
एक बार राजा रन्तिदेव के राज्य में अकाल पड़ा । सभी ओर भुखमरी और महामारी का दावानल दिखाई दे रहा था । अपनी दया और करुणा के रहते राजा रन्तिदेव ने गरीबों और दीन – दुखियों की सेवा सहायता करने के लिए अपना सर्वस्व दान कर डाला था । अब राजा रन्तिदेव और उनका परिवार एक वक्त के भोजन के लिए तरस रहा था । कई दिनों तक बिना भोजन के केवल पानी पर निर्वाह करना पड़ रहा था ।
 
एक बार अड़तालीस दिन तक भूख – प्यास से लड़ने के बाद उनपचासवे दिन राजा को कहीं से कुछ भोजन और जल मिला । लम्बे समय तक भूखे रहने के कारण राजा और उसके परिजनों का शरीर पूरी तरह से दुर्बल हो चूका था ।  जो भोजन मिला उसे राजा अपने परिवार के साथ खाने के लिए बैठे ही थे कि कहीं से के ब्राह्मण अतिथि का आगमन हो गया ।
 
एक भूखे के लिए भोजन से बड़कर कुछ नहीं होता । उसमें भी एक अतिथि आकर अडंगा लगा दे तो मन की क्या स्थिति होती है ? यह कोई भूखा ही बता सकता है !
 
लेकिन करुणा से व्याप्त महाराज रन्तिदेव सर्वत्र करुणानिधि को देखते थे । जैसे ही ब्राह्मण महोदय का आगमन हुआ । महाराज रन्तिदेव ने बिना भोजन किये आसन छोड़ दिया । भूखे पेट रन्तिदेव ने ब्राह्मण को ससम्मान भोजन कराया । ब्राह्मण महोदय को भोजन कराके विदा करने के बाद जो बचा था । उस भोजन को परिजनों में बांटकर अपनी क्षुधा शांत करने के लिए बैठ गये ।
 
तभी अचानक एक शुद्र का आगमन हुआ । शुद्र भी भूखा था । करुणानिधि का स्मरण करते हुए करुणा के सागर राजा रन्तिदेव ने बचा हुआ भोजन शुद्र को परोस दिया । शुद्र भी भोजन से तृप्त होकर चला गया ।
 
अब बचा हुआ भोजन परिवार में बांटकर रन्तिदेव करने वाले ही थे कि इतने में एक व्यक्ति अपने कुत्तों के साथ आया और भोजन की याचना करने लगा । दया के सागर रन्तिदेव ने बचा हुआ भोजन उसे परोस दिया । अब सारा भोजन उस व्यक्ति की क्षुधा शांत करने में ही पर्याप्त हो गया । वह व्यक्ति भोजन करके चला गया ।
 
अब राजा रन्तिदेव के पास केवल थोड़ा सा जल बचा था । उन्होंने उसी से अपनी क्षुधा अग्नि शांत करने की सोची और जल ग्रहण करने वाले ही थे कि तभी एक चांडाल का आगमन हुआ । चांडाल आकर बोला – “महाराज ! मैं बहुत भूखा हूँ । कुछ कृपा कीजिये ।”
 
रन्तिदेव ने बचा हुआ जल भी उस चांडाल को दे दिया और यह सोचकर संतोष कर लिया कि “मुझे रिद्धि – सिद्धि और मोक्ष मिले न मिले लेकिन दीन – दुखियों के दुखों को दूर करने का आनंद हमेशा मिलता रहे । दूसरों को खुश देखकर ही मुझे ख़ुशी मिले । दूसरों को तृप्त देखकर ही मुझे तृप्ति मिले । हे ईश्वर मुझे ऐसा वरदान दे कि मैं सबके दुःख –दर्द अपने पर ले सकूं ताकि यह दुनिया सुख – शांति से अपना जीवन जिए ।”
 
राजा द्वारा दिया गया जल पीकर वह चांडाल भी राजा को प्रणाम करके चल दिया । लेकिन अब राजा का शरीर साथ नहीं दे रहा था और उसके परिजन भी उसका साथ देने में असमर्थ थे ।
 
तभी करुणानिधि भगवान का प्राकट्य हुआ । वह ब्राह्मण, शुद्र और चांडाल के रूप में विभिन्न देवता ही थे जो राजा रन्तिदेव की परीक्षा लेने आये थे । राजा की करुणा – दया – धैर्य और भक्ति को देखकर भगवान उससे अत्यधिक प्रसन्न थे । अतः उन्होंने राजा को मनोवांछित वर मांगने को कहा लेकिन राजा रन्तिदेव तो पहले ही माया से अतीत थे । उन्होंने केवल प्रभु का साथ चाहा और सपरिवार प्रभु के धाम चले गये ।

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