च्यवन ऋषि की कथा | सुकन्या का साहस

एक पौराणिक कथानक है । पौराणिक समय में शर्याति नामक एक राजा हुए है, जो वैवस्त मनु के दस पुत्रों में से एक थे । राजा शर्याति जब भी समय मिलता, अपने परिजनों के साथ बिताते थे ।

एक बार राजा शर्याति अपने परिजनों के साथ वन विहार कर रहे थे । दिन भर घूमते – घामते सब थक चुके थे । दोपहर होने को आया था । राजा सहित सभी लोग जलपान करने के लिए एक सरोवर के निकट पहुंचे । सभी लोग जलपान करके विश्राम करने लगे । लेकिन नयी जगह पर बच्चों को चैन कहाँ होता है । बच्चे खेलकूद और मनोविनोद में लगे थे ।

खेलते खेलते राजकन्या सुकन्या ने देखा कि मिट्टी के एक ढेर के नीचे दो मणियों सी चमकती कोई वस्तुयें है । देखते ही वह उन्हें निकालने के लिए आतुर हो उठी । कहीं से एक लकड़ी लाई और उसने उन्हें निकालने की कोशिश की । लेकिन जैसे ही उसने लकड़ी डाली दोनों ही चमकती हुई वस्तुएं बुझ गई । यह देख सुकन्या को बड़ा आश्चर्य हुआ । वह दौड़कर अपने पिता के पास गई और पूरी बात बताई ।

जब राजा शर्याति आये और उन्होंने देखा तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा साथ ही दुखी भी हुए । क्योंकि उस मिट्टी के ढेर के नीचे च्यवन ऋषि तपस्या कर रहे थे और सुकन्या ने अनजाने में उनकी दोनों आंखे फोड़ दी थी ।

राजा ने देखा कि महर्षि के नेत्रों से खून बह रहा है और वह अंधे हो चुके थे, समाधी टूट चुकी थी । सुकन्या अनजाने में हुई इस गलती के लिए पश्चाताप से भर उठी । वह जानती थी कि पाप की मुक्ति केवल उपयुक्त प्रायश्चित से ही की जा सकती है । वह एक राजकन्या थी और अच्छे से जानती थी कि “कायरता क्षमा मांगती है और वीरता क्षतिपूर्ति करने को तत्पर रहती है ।”

उसने अपने अपराध को समझते हुए घोषणा की कि “मैं आजसे ही आजीवन इनकी धर्मपत्नी बनकर इनकी सेवा करूंगी । यही मेरे पाप का प्रायश्चित है ।”

सुकन्या की इस घोषणा ने उसके गौरव को कई गुना बड़ा दिया । देवता भी उसके साहस पूर्ण अपूर्व त्याग और बलिदान की स्तुति करने लगे । उसके पिता का सिर भी गर्व से उठ गया और ह्रदय में विषाद की जगह हर्ष ने ले ली ।

दोनों का विवाह हो गया । च्यवन ऋषि को अपना पति मानकर सुकन्या दिनरात उनकी सेवा में जुट गई । सुकन्या के धैर्य और साधना से प्रसन्न होकर अश्विनीकुमारों ने च्यवन ऋषि को अन्धता से मुक्त करके फिर से युवा बना दिया । इस तरह सुकन्या ने साहस, धैर्य और भक्तिपूर्वक अपने जीवन को सार्थक कर लिया ।

विचित्र साहस – महर्षि बोधायन की कहानी

भारत के प्राचीन गणितज्ञ महर्षि बोधायन एक बार अपने शिष्यों को लेकर वन विहार कर रहे थे । गर्मी का समय था और दोपहरी की धुप भी तेज थी । लम्बा रास्ता चलने से सभी थक चुके थे अतः सघन वृक्षों की छाँव में विश्राम करने लगे । थकान के कारण सभी को शीघ्र ही नींद आ गई ।

संध्या होने को आई और दिन ढल चूका था । तभी अचानक महर्षि की आंख खुली । उठते ही उन्होंने अपने सभी शिष्यों को पुकारा । गुरुदेव की आवाज सुन सभी शिष्य उठ खड़े हुए । परन्तु एक शिष्य गार्ग्य अभी भी पड़ा हुआ था ।

आश्चर्य से देखते हुए महर्षि उसके पास गये और उसे जगाने लगे । लेकिन वह तो पहले से ही जागा हुआ था । गुरुदेव को देख गार्ग्य बोला – “गुरुदेव ! एक विषैला काला सर्प मेरे पैरों में लिपटा सो रहा है । अगर मैंने उसकी निद्रा भंग की तो हो सकता है वो विचलित हो जाये और हम सबको नुकसान पहुचाएं । जब तक वो अपने रास्ते न चला जाये तब तक मेरा ऐसे ही पड़ा रहना उचित है ।”

कुछ समय तक गार्ग्य ऐसे ही पड़ा रहा और कुछ समय पश्चात सर्प जागा और पास ही की झाड़ी में घुस गया । जब शिष्य उठा तो महर्षि ने उसे सीने से लगा लिया ।

सभी ने उसके साहस और धैर्य की भूरि – भूरि प्रशंसा की । महर्षि ने उसे गले से लगा लिया ।

शिक्षा – अक्सर साहस का मूल्याङ्कन किसी की शारीरिक क्षमता से किया जाता है, जबकि साहस एक मानसिक गुण है । साहसी होने के लिए शक्तिशाली होना जरुरी नहीं, बल्कि इरादे का पक्का होना जरुरी है । मुसीबतों से लड़ पड़ने की हिम्मत होना जरुरी है । अपनी गलत आदतों को चुनौती देने की हिमाकत होना जरुरी है ।

नोट – कभी कभी लोग अपने से शक्तिशाली व्यक्ति को चुनौती देने को साहस समझ लेते है । भाई ! वो साहस नहीं, दुस्साहस है, जिसकी हो सकता है, आपको कीमत चुकानी पड़े । हो सकता है आप पिट जाओ ।

लेकिन मैं यह भी कहूँगा कि – “ अच्छे काम के लिए दुस्साहस होना भी अच्छा है और बुरे काम के लिए साहस होना भी बुरा है ।”

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