भगवान की माया | देवर्षि नारद की कहानी

एक बार नारदजी मृत्युलोक का भ्रमण कर रहे थे । मृत्युलोक में दुःख, शोक और संताप से पीड़ित मानवता को देखकर नारदजी बड़े दुखी हुए । वहाँ से नारदजी सीधे विष्णुलोक पहुँचे और भगवान विष्णु से बोले – “ प्रभु ! मृत्युलोक पर बहुत दुःख, शोक और संताप है । आप उनके कल्याण के लिए कुछ करते क्यों नहीं ?”
भगवान विष्णु बोले – “ नारद ! जो मनुष्य योग का अनुसरण करेगा, उसपर मेरी माया का असर नहीं होगा । वह हमेशा आनंदित रहेगा । लेकिन जो केवल भोगों में लगा रहेगा, उसे मेरी माया दुःख, शोक और संताप ही दे देगी ।”
 
नारदजी बोले – “ प्रभु ! आपकी माया के बारे में मैंने बहुत सुना है लेकिन कभी देखा नहीं, कृपा करके आप मुझे अपनी माया दिखायेंगे ?”
 
भगवान विष्णु बोले – “ नारद ! तुम तो हमेशा मुझमें विचरण करते हो, इसलिए मेरी माया तुम्हें आवृत नहीं कर सकती । अतः तुम माया को देखने की ज़िद छोड़ दो ।”
 
लेकिन फिर भी नारद जी नहीं माने और अपनी ज़िद पर डटे रहे । आखिर भगवान विष्णु की बात माननी ही पड़ी और भगवान विष्णु बोले – “ नारद चलो चलते है, मृत्युलोक ! वही पर दिखाऊंगा तुम्हें अपनी माया !” इतना कहते ही भगवान विष्णु और नारदजी दोनों मृत्युलोक पर एक वियवान रेगिस्तान में उतरे, जहाँ दूर – दूर तक पानी का कोई अता – पता नहीं था ।
 
यह देखकर नारदजी बोले – “ प्रभु ! हम ये कहाँ आ गये ? कहाँ है आपकी माया ?”
 
भगवान विष्णु बोले – “ अरे नारद ! माया से भी मिल लेंगे, फ़िलहाल प्यास के मारे मेरा गला सुखा जा रहा है, अब मुझसे थोड़ा भी नहीं चला जा रहा है । कहीं थोड़ा बहुत पानी मिले तो ला दो । तब – तक मैं यही बैठकर विश्राम करूंगा ”
 
प्रभु को प्यास लगी थी, पानी तो लाना ही था । यह सोचकर नारदजी पानी की तलाश में रेगिस्तान में निकल पड़े । चलते – चलते वह एक नदी पर पहुंचे । वह कमण्डलु में पानी भरने ही वाले थे कि उन्हें विचार आया कि स्नान करके ही प्रभु के लिए पानी ले जाना चाहिए । यह सोचकर नारदजी ने नदी में छलांग लगा दी । जैसे ही नारदजी ने नदी में छलांग लगाकर निकले, बाहर का नजारा कुछ और ही था । जैसे ही नारदजी अपना कमण्डलु लेने के लिए आगे बढ़े, उनके कमंडल की जगह एक सुन्दर युवती खड़ी थी । वह युवती इतनी सुन्दर थी कि उसी क्षण वह नारदजी के ह्रदय में बस गई । नारदजी ने सारी बाते भूलकर उसके सामने शादी का प्रस्ताव रख दिया ।
 
सुंदरी तो आई ही इसी मंशा से थी । अतः वह झट से मान गई और नारदजी को अपने घर ले गई । वहाँ जाकर पता चला कि वह एक राजकुमारी थी । वह अपने पिता की इकलौती बेटी और उस राज्य की इकलौती राजकुमारी थी । राजा ने अपनी पुत्री के स्वयंवरित पति से उसका विवाह करवाके उसे ही उस राज्य का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया ।
 
अब तो सम्राट बनकर नारद जी के दिन बड़े ही आराम से बीतने लगे । ऐसे दिन पर दिन बीतते गये और महाराज की परम सुंदरी महारानी ने दो पुत्र रत्नों को जन्म दिया । सम्राट बने नारदजी अपने राजकुमारों को देखकर ख़ुशी से फुले नहीं समाते थे ।
 
तभी अकस्मात एक दिन नदी में बाढ़ आ गई । पूरा राज्य तहस – नहस हो गया,  विशाल अट्टालिकाएँ धुल में मिल गई और कोई तबकर मर गया तो कोई डूबकर मर गये । किसी तरह नारदजी ने अपने परिजनों को बचाया ।
 
वह अपनी बीवी और पुत्रों को एक नाव में बिठाकर सुरक्षित स्थान पर ले जाना चाहते थे लेकिन तभी नदी में एक और तूफान आया और नाव उलट गई । दोनों बच्चों को तो नारदजी ने पकड़ लिया किन्तु महारानी बह गई । नारदजी बड़े दुखी हुए लेकिन मज़बूरी में सिवाय देखने के कुछ कर न सके ।
 
किसी तरह बच्चों को सुरक्षित लेकर वह किनारे पर पहुंचे । लेकिन अब उनके पास खाने खिलाने के लिए कुछ नहीं था । बच्चों को बड़ी जोर से भूख लगी तो वह जोर – जोर से रोने लगे और देखते ही देखते बच्चो ने भूख से प्राण त्याग दिए ।
 
यह देखकर सम्राट नारद घोर विषाद में डूब गये । अकेले पड़ गए नारदजी ने जीने का कोई सहारा न देख स्वयं का प्राणांत करने की सोची और नदी में छलांग लगा दी ।
 
तभी नदी के बाहर बैठे भगवान विष्णु बोले – “ अरे नारद ! मैं वहाँ तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था और तुम यहाँ स्नान कर रहे हो । मैंने तुम्हें पानी लाने के लिए भेजा था, इस मायावी नदी की दुनिया में खोने के लिए नहीं !”
 
तब नारदजी बोले – “ तो क्या प्रभु ! जो मैंने देखा वह सब मिथ्या है ?”
 
भगवान विष्णु बोले – “ हाँ नारद ! यही तो मेरी माया है, तुम्हारी बहुत इच्छा थी माया देखने की । देख ली अब या और देखना है ?”
 
नारदजी बोले – “ नहीं – नहीं प्रभु ! अब मुझे कोई माया नहीं देखनी । आपके दर्शन ही पर्याप्त है ।”
 
शिक्षा – इस कहानी की सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा यही है कि जब तक हम ईश्वर को अपने ह्रदय में धारण किये रहेंगे तब तक संस्कारिक मोह माया हमें प्रभावित नहीं कर सकेगी । किन्तु जैसे ही हमारा ध्यान ईश्वर से हटा, हम संसारिकता के दल – दल में धसते चले जाते है । अतः बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि हमेशा यथायोग्य प्रभु का स्मरण बनाये रखे ।
 
जय श्री कृष्णा

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