paramhansa vishuddhanand

स्वामी विशुद्धानन्द परमहंस के अद्भुत प्रसंग

बंगाल राज्य के वर्धमान जिले के बण्डूल में चट्टोपाध्याय वंश लम्बे समय से अतिथि सेवा और भक्ति के लिए प्रसिद्ध है । फाल्गुन मास का 29वा दिन था, वसंत का आगमन हो चुका था, जन्म जन्मांतरों के पुण्य फल का उदय हुआ था जो श्री अखिल चंद्र चट्टोपाध्याय और उनकी सहधर्मिणी देवी राजराजेश्वरी को भगवती जगन्माता की कृपा से एक अपूर्व पुत्र प्राप्त हुआ ।

इस अद्भुत बालक का नाम भोलानाथ रखा गया जो शुक्ल पक्ष के चंद्रमा की भांति धीरे-धीरे बढ़ने लगा । भोलानाथ को बचपन से ही भगवान की मूर्तियों के साथ खेलना पसंद था । घर में ही विभिन्न देवी – देवताओं की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित थी । भोलानाथ जंगल से फुल तोड़ लाता और मालाएं बनाकर उन्हें पहनाता था । तुलसी, बिल्वपत्र और चन्दन आदि सामग्री जुटाकर भोलानाथ देव पूजा में जुटकर परम शांति का अनुभव करता था । बिना देवपूजा किये भोलानाथ जल तक ग्रहण नहीं करता था । भोलानाथ की पूजा में कोई पारम्परिक मन्त्र, विधि नहीं होती थी, बल्कि सच्चे ह्रदय से होती थी ।

भोलानाथ का वचन सत्य हुआ

एक बार की बात है । भोलानाथ अपने साथियों के साथ खेलते – खेलते गाँव से दूर निकल गया । वहीं बालुका में शिवलिंग स्थापित करके बिल्वपत्र आदि चढ़ाकर पूजा करने लगा । तभी एक उद्दण्ड बालक ने पूजा में विघ्न उत्पन्न किया तो बाल स्वभाव भोलानाथ ने क्रोध में आकर जोर से उस बालक को कहा – “ तूने हमारे शिवजी के साथ झगडा किया है, इसलिए अब तुझे उनका सांप डसेगा !”

यह महज बालक के रोष से भरे उद्दगार मात्र थे । किन्तु आश्चर्य की बात है कि जो भोलानाथ ने कहा, वह सत्य हो गया । उसी दिन संध्या को उस लड़के को एक सांप ने काट लिया और वह निष्प्राण हो गया । जब यह बात भोलानाथ को पता चली तो उसने अपने हाथ से उसे स्पर्श मात्र किया और वह बालक ठीक हो गया ।

ग्राम में उत्तर दिशा में भांडार डीही के निकट एक शमशान में एक वृक्ष था । उस वृक्ष के नीचे एकांत में बैठना भोलानाथ को अत्यंत प्रिय था । जब कभी भी समय मिलता, वह उस वृक्ष के नीचे एकांत में आ बैठता था । गाँव में किसी साधू, संत के आने का समाचार पाते ही भोलानाथ उसने दर्शन के लिए आतुर हो उठता था ।

निर्भीक भोलानाथ

एक बार बण्डूल गाँव से कुछ दुरी पर एक सन्यासी का आगमन हुआ । समाचार मिलते ही भोलानाथ वहाँ जाने के लिए सोचने लगा किन्तु किसी कारणवश दिन में जाना नहीं हो पाया तो उन्होंने रात्रि में जाने का सोचा । रात अँधेरी थी, सोचा कोई साथी मिल जाये तो अच्छा है, लेकिन उस अँधेरी रात में कोई भी अपने घर बाहर निकलने के लिए तैयार नहीं हुआ । आखिर अकेला ही भोलानाथ अँधेरी रात में जंगल से होते हुए सन्यासी के निवास स्थान पर पहुँचा । सन्यासी ने बालक की निर्भीकता देखकर कहा – “ बालक ! मैं देख रहा हूँ, तुम्हारे अदम्य साहस और तेजस्विता के पीछे एक अद्भुत शक्ति काम कर रही है, जिसके प्रभाव से तुम इस काली अंधियारी रात्रि में निर्जन जंगल और घोर शमशान से होते हुए यहाँ तक आ पहुँचे हो । तुम स्वयं नहीं जानते, तुम क्या होने वाले हो । समय आने पर सब जान जाओगे ।”

स्वाभिमानी बालक

एक बार किसी ने भोलानाथ को भला – बुरा कह दिया । जबकि असल में उनका कोई दोष नहीं था । लेकिन अपनी तेजस्वी प्रकृति के कारण भोलानाथ कभी भी मनुष्यों से नहीं रूठता था । भोलानाथ का विश्वास था कि मनुष्य तो निमित्त मात्र है, असली कर्ता तो ईश्वर है । इसलिए वह ईश्वर से रुष्ठ होता था । अपनी प्रकृति के अनुरूप ही उस दिन भी भोलानाथ रूठा और श्रीकृष्ण की मूर्ति को ह्रदय से लगाकर आत्महत्या के विचार से पुष्करिणी नदी में कूद पड़ा । किन्तु आश्चर्य की बात है कि बालक जिधर भी गया, पानी गहरा होते हुए भी घुटनों से ऊपर नहीं चढ़ा । थक हारकर भोलानाथ को नदी से बाहर निकलना पड़ा । जब लोगों ने यह चमत्कार देखा तो तबसे वह भोलानाथ को विशिष्ट मानने लगे ।

भोलानाथ के घर के निकट ही बंकिम कुंडू नाम का एक व्यक्ति रहता था । उसका लड़का भोलानाथ का घनिष्ट मित्र था । वह लड़का जब भी बीमार होता था । भोलानाथ उसे श्यामसुंदर के स्नान का जल पिलाकर उसके माथे पर छिड़क देता था । इतने मात्र से वह लड़का ठीक हो जाता था ।

एक बार भोलानाथ के काका ने उसके लिए धोती ला दी । भोलानाथ ठहरा बालक, उसने खेल ही खेल में पूरी धोती फाड़कर टुकड़े – टुकड़े कर दिए । जब काका ने यह देखा तो वह बहुत गुस्सा हुआ । तब भोलानाथ ने दुखी होकर फटी हुई धोती के टुकड़े मुट्ठी में बंद करके हवा में उछाल दिए तो धोती पूर्ववत हो गयी । यह देखकर लोग चकित रह गये और आपस में भोलानाथ को देवताओं का अंश बताने लगे ।

भोलानाथ का ईश्वर विश्वास

भोलानाथ छः महीने के थे, तभी उनके पिताजी गुजर गये । तबसे उनका लालन – पालन उनके काका ने किया । लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि जब भोलानाथ आठ वर्ष के थे । तब उनके काका का भी स्वर्गवास हो गया । तब भोलानाथ की उनकी माँ ही एक सहारा थी । एक बार उनकी माताजी को विशुचिका नामक रोग हो गया । बहुत उपचार किये किन्तु वह ठीक नहीं हुई । रोग दिन – प्रतिदिन बढ़ता जा रहा था । उनके बचने की उम्मीद सब छोड़ चुके थे । तब एक बार भोलानाथ की काकी ने उससे पूछा – “ ये पगले ! बता तो हमारी दीदी बचेगी या नहीं ?”

भोलानाथ सरल ह्रदय का उसे क्या पता विशुचिका क्या होता है ! उसने तुरंत जवाब दिया – “ जरुर बचेगी, क्यों नहीं बचेगी ।” उसी रात वह अपने घर के पीछे की गौशाला में जाकर गौबर के कंडो पर यह निश्चय करके बैठ गया कि “ आज उन सब देवी – देवताओं की परीक्षा लूँगा, अगर उन्होंने कोई प्रत्युतर नहीं दिया तो सब मूर्तियों को तोड़ – फोड़कर फेंक दूंगा ।”

उधर भोलानाथ बैठे और इधर रोगी माँ की हालत सुधरने लगी । सब व्यस्त थे तो सुबह तक भोलानाथ का किसी को कोई खयाल नहीं आया । जब सुबह खोज हुई तो वह गौशाला में उपलों पर बैठा था । सुबह होते ही उसकी माँ भी ठीक हो गई ।

नौ वर्ष की उम्र में भोलानाथ का उपनयन संस्कार हो गया । उसके पश्चात् माँ गायत्री के प्रभाव से उनका ब्रह्मचर्य तेज उत्तरोतर बढ़ता गया । कहा जाता है कि एक बार बण्डूल के शिवलिंग के दो टुकड़े हो गये और उसमें से उन्हें शिव – पार्वती के दर्शन हुए ।

कुत्ते का काटना और अद्भुत सन्यासी से मिलन

एक बार चौदह – पंद्रह वर्ष की आयु में सीढ़िया उतरते समय एक पागल कुत्ते ने काट लिया । कुत्ते के काटने के कारण पुरे शरीर में जलन होने लगी । भोलानाथ ने यह बात अपने घर वालों को बताई । उसके दादा चिकित्सक थे । उन्होंने अपने स्तर पर इलाज करना शुरू कर दिया । अन्य वैद्यों की भी सहायता ली गई लेकिन कोई लाभ न हुआ ।

तब उन्हें एक गोंदलपाड़ा ले गये, वहाँ से हुगली ले गये । लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा । जलन इतनी तेज हो गई कि बालक जोर – जोर से चिल्लाने लगा । भोलाराम ने सोच लिया कि मेरा अंत समय आ चूका है ।

संध्या का समय था । सूर्य अस्त होने जा रहा था । बालक सूर्य की लालिमा को देखते हुए गंगा किनारे आ बैठा । वह मन ही मन चिंतन कर रहा था कि “ स्वयम को इस गंगा मैया की गोद में अर्पण कर दूँ ।” तभी एक अद्भुत घटना घटित हुई । वह एकटक गंगा के जल को निहार रहा था । तभी उसने देखा कि एक जटाधारी सन्यासी बार – बार गंगा के जल में डुबकियाँ लगा रहा है । सन्यासी का मुख शांत – प्रशांत के सदृश उज्जवल और अलौकिक जान पड़ रहा था । सन्यासी ने बालक का चेहरा देखकर ही सारा हाल जान लिया ।

गंभीर स्वर में सन्यासी बोला – “ बच्चा ! इतने चिंतित क्यों हो ? हम अभी सब अच्छा किये देते है ।” इतना कहकर वह किनारे पर आ गये । उन्होंने बालक के सिर पर हाथ रखा और बालक के पुरे शरीर में शीतल अमृत धाराएँ प्रवाहित होने लगी । सन्यासी ने तभी वहाँ से एक ओषधि लाकर दी और उसे घर लौट जाने को कहा ।

दुसरे दिन भोलानाथ फिरसे गंगा किनारे उसी स्थान पर पहुँचा । उसने कहा – “ प्रभो ! आपने मुझे ठीक किया । मैं आपको छोड़ना नहीं चाहता । आप मुझे दीक्षा दीजिये ।” तब उन्होंने भोलानाथ को एक आसन और मन्त्र दे दिया और कहा – “ हम तुम्हारे गुरु नहीं है, तुम्हारे गुरु यहाँ से दूर है । समय आने पर वह तुमसे मिलेंगे और आगे मार्गदर्शन करेंगे ।

इसके पश्चात् भोलानाथ अपने गुरु की खोज में तिब्बत की हिमाच्छादित पहाड़ियों में भटकने लगे । तब उन्हें “किंवाहीम कुटी” में उन्हें गुरु की प्राप्ति हुई । उन्होंने अपने गुरु के निर्देशन में बारह वर्षो तक सूर्य विज्ञान का अभ्यास किया । आगे चलकर वह योगी विशुद्धानंद के नाम से विख्यात हुए । विशुद्धानन्द जी के गुरुजी की आयु लगभग 1200 वर्ष थी और वह जिस स्थान पर रहते थे । वह सिद्धाश्रम नाम से जाना जाता है ।

स्वामी विशुद्धानंद के एक शिष्य पंडित गोपीनाथ कविराज की कृपा से हम सब स्वामीजी के बारे में कुछ जान पाए है । ऐसे महान योगी को शत शत नमन !

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