अध्यात्म क्या है | आध्यात्मिक चिंतन

अध्यात्म क्या हैं ?  इस विषय पर चर्चा करने से पहले, मैं आपको यह बताना जरुरी समझाता हूँ कि अध्यात्म की जीवन में क्या आवश्यकता हैं ?

मित्रों ! अगर हम अपने चारों ओर नजरें  दौड़ाये तो हमें ज्ञात होगा कि आज का इंसान आधुनिकता की ओर कितनी निर्ममता से दौड़ रहा हैं । इस आधुनिक इंसान की आस्थायें इतनी कमज़ोर पड़ गई हैं कि अपनी इस दौड़ में वह तुच्छ सांसारिक वासनाओं की पूर्ति करने के लिये सामाजिकता और नैतिकता की सीमाओं को ऐसे लाँघ जाता हैं । जैसे सांसारिक वासनाओं की तृप्ति ही सब कुछ हैं ।

आजकल समाचार पत्रों के अधिकांश पृष्ठ लुट, चोरी, धोखा, अत्याचार, बलात्कार और भष्टाचार जैसे जघन्य अपराधों  से भरे होते हैं । टेलीविज़न पर दिनरात दिल दहलाने वाली खबरे आती रहती हैं । अगर एक क्षण के लिए  अंतरजाल (Internet ) के बारे में सोचा जाये तो हमें ज्ञात होगा कि यह एक ऐसा मकड़जाल हैं, जिसमें फसकर अनजान और नादान लोग देश के धर्मं, संस्कृति और सभ्यता का सत्यानाश कर रहे हैं ।

प्रकृति कितनी सुंदर हैं । कितने सारे पशु – पक्षी पेड़ – पौधे जलप्रपात इस प्रकृति की  गौद में खेलते हैं, किन्तु इनके साथ भी हमारे तथाकथित महान वैज्ञानिक छेड़छाड़ करने से नहीं चुके हैं । इन्ही का परिणाम हैं की सम्पूर्ण विश्व पर्यावरण प्रदूषण, हरित गृह प्रभाव ( Global Warming ), अम्लीय वर्षा ( Acid Rain ), औजोन क्षय जैसी समस्याओं से जूझ रहा हैं । आपको अजीब लगेगा किन्तु यह सत्य हैं कि हमारा आधुनिक विज्ञान केवल सुख – सुविधाएँ जुटाने तक सीमित हैं । धर्मं नैतिकता और विश्वकल्याण जैसी भावनाओं की उसमे कोई जगह नहीं । इसीलिए अधिकांश वैज्ञानिक आविष्कार मानव समाज के विकास में कम, विनाश में अधिक कारगार सिद्ध हुये हैं । इसके दृश्य जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर हुये परमाणु हमले के में देखे जा सकते हैं ।

ध्यान दीजिए, मैं यहाँ विज्ञान को लेकर कोई अविश्वास नहीं फैला रहा हूँ, किन्तु एक महत्वपूर्ण बात की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ । अध्यात्म के बिना विज्ञान केवल विनाश कर सकता हैं, विकास नहीं  और जो यदि विज्ञान विकास कर रहा हैं, तो जान लो कि उसमें कही ना कहीं अध्यात्म का अंश विद्यमान हैं । इसी बात को ध्यान में रखते हुये भारतीय धर्मं और संस्कृति के अनुसार भारत वर्ष में पुरातन काल से ही गुरुकुलों में अध्यात्म और विज्ञान दोनों की शिक्षाओं को साथ – साथ दिया जाता था । इसके प्रमाण आर्यभट्ट, वराहमिहिर, नागार्जुन,चरक, सुश्रुत आदि के रूप में देखे जा सकते हैं ।

आज कोई गरीबी से पीड़ित हैं, तो कोई बीमारी का शिकार हैं । कोई चिंता के गहरे सागर में गोते लगा रहा हैं, तो कोई समय से पहले चिता सजाने की तैयारी कर रहा हैं । आज इंसान खुद से कितना अनजान जान पड़ता हैं ! दूसरों के लिए कितना हैवान जान पड़ता हैं ! क्यों ? क्योंकि इंसान भूल चूका हैं कि वह कौन हैं ?

काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार रूपी दुर्जय राक्षस उसके अंतःकरण के धरातल पर इस कदर तांडव नृत्य कर रहे हैं, कि उसे एक पल के लिए भी शांति नहीं मिलती । वह शांति की प्राप्ति के लिए संसार में जहाँ – तहाँ भटकता हैं, किन्तु सांसारिक नश्वर पदार्थों में शाश्वत शांति कैसे विद्यमान हो सकती हैं ।

हम किसी भी पदार्थ की इच्छा क्यों करते हैं ? ज़ाहिर हैं, तृप्ति पाने के लिये । तो क्या उस पदार्थ में तृप्ति विद्यमान हैं, “नहीं” । जो यदि उस पदार्थ में तृप्ति विद्यमान होती तो उस पदार्थ का भोग करने के पश्चात् हमें किसी नये पदार्थ की इच्छा नहीं होना चाहिये थी, किन्तु ऐसा नहीं होता हैं । एक पदार्थ का उपभोग करने के पश्चात हमें दुसरे पदार्थ की इच्छा हो जाती हैं, और दुसरे के बाद तीसरे की, और यह क्रम मृत्युपर्यंत चलता रहता हैं, किन्तु हमारी तृष्णा कभी शांत ही नहीं होती ।

इससे यह सिद्ध होता हैं कि असल में शांति और तृप्ति का  मुख्य स्त्रोत तो हमारे भीतर हमारी आत्मा में विद्यमान हैं । सांसारिक पदार्थों में नहीं, जो तृप्ति की अनुभूति हमें नश्वर पदार्थों में होती हैं । वस्तुतः वह आत्मिक तृप्ति की ही अभिव्यक्ति हैं ।

मान लीजिये कोई सामान्य सा इंसान डमबेल और बारबेल की सहायता से यदि पहलवान बन जाये तो क्या आप ये कहेंगे की डमबेल और बारबेल में ताकत हैं, “नहीं”। डमबेल और बारबेल तो केवल सहायक भर हैं । असल में ताकत तो उसकी मांसपेशियों में पहले से विद्यमान थी । ठीक उसी तरह विभिन्न भौतिक पदार्थो के माध्यम से भी आत्मिक तृप्ति ही अभिव्यक्त होती हैं । उसे हम अज्ञानता वश उस पदार्थ से मान बैठते हैं, और यहीं हमारी कभी तृप्त नहीं होने वाली अतृप्ति का कारण हैं ।

पूछो स्वयं से कि मैं कौन हूँ ? जब मनुष्य यह जानने की चेष्टा करता हैं कि “मैं कौन हूँ” वहीं से अध्यात्म की शुरुआत होती हैं । निश्चित मानिये आप बहुत महान हैं । क्योंकि आप महान परमपिता “परमात्मा” की संतान “आत्मा” हैं । खुद को जानना और ईश्वर को पहचानना ही अध्यात्म का परमलक्ष्य हैं । आत्मा के अनुसंधान के विज्ञान को ही “अध्यात्म” कहते हैं । इसके लिए आपको कहीं जाने की जरूरत नहीं हैं केवल और केवल आत्मनिरीक्षण करने की जरूरत हैं । अपनी मनोभूमि में छुपे बैठे जन्मजन्मान्तर के कुसंस्कारों तथा कषाय कल्मषों को जड़ मूल से उखाड़ने की जरूरत हैं । अपने अंतःकरण में ईश्वरीय सद्गुणों के बीज बोने तथा उन्हें श्रद्धा और विश्वास के साथ तत्परता, तन्मयता, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी से सींचने की जरूरत हैं । याद रखिये, आत्मा ही अपने परिष्कृत रूप में परमात्मा हैं । इस बात को हम जितना गहराई से समझ कर अमल में ला सके, उतनी ही हमारी आध्यात्मिक उन्नति आसान हो जाएगी ।

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
प्रणाम !!!

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